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कुन्दकुन्द श्रावकाचार 'अ-क-च-र-त-प-ह-य शान् क्रमाद वर्णानिमानि च। नवकोष्ठोकते भमिभागे प्राच्यादि दिशतो लिखेत ॥१५५ 'प्रश्ने अः स्याद्यदि प्राच्यां नरशल्यं तदा भवेत् । सार्धहस्तप्रमाणेन तच्च मानुष्यमृत्यवे ॥१५६ अग्नेदिशि तु क: प्रश्ने खरशल्यं करद्वयम् ।
राजदण्डो भवेत्तस्मिन् भयं नैव निवर्तते ॥१५७ याम्यायां दिशि चः प्रश्ने नरशल्यमधो भवेत् । तद्-गृहस्वामिनो मृत्युं करोत्याकटिसंस्थितम् ।।१५८ नैऋत्यां दिशि तः प्रश्ने सार्घहस्तादधस्तले। शुनोऽस्थिर्जायते तत्र डिम्भानां जनयेन्मृतिम् ॥१५६ तः प्रश्ने पश्चिमायां तु शिवा-शल्यं प्रजायते । सार्घहस्ते प्रवासाय सदनस्वामिनः पुनः ॥१६०१ "वायव्यां दिशि हः प्रश्ने नराणां वा चतुःकरे । करोति मित्रनाशं ते दुःस्वप्नेऽस्य प्रदर्शनात् ॥१६१
जिस भूमिपर मन्दिर बनाना हो, उसपर नौ कोठे बना करके पूर्व दिशा आदिके क्रमसे अ, क, च, ट, त, है, श, प और मध्य कोठेमें य इन अक्षरों को लिखे। (कोष्ठ-चित्र मूलमें दिया है । ) विशेषार्थ-.'ओं ह्रीं श्रीं ऐं नमो वाग्वादिनि मम प्रश्ने अवतर अवतर' इस मंत्रसे खड़िया मिट्टोको मंत्रित करके किसो कन्याके हाथमें देकर कोष्ठगत किसी एक अक्षरको लिखावे। वह जिस भाग वाले कोष्ठगत अक्षरको लिखे, उस भागमें शल्य है अर्थात् भूमिके उस भागमें किसी पशु-मनुष्य आदि की हड्डो आदि है, ऐसा जानना चाहिए* ॥१५५।।
यदि पूछने वालेके प्रश्नके प्रारम्भमें 'अ' अक्षर हो तो उस भूमिको पूर्व दिशामें डेढ़ हाथके नीचे नर-गल्य अर्थात् ( मनुष्यको हड्डी ) होगी और वह मनुष्यको मृत्युके लिए होगी ।।१५६|| यदि प्रश्नके प्रारम्भमें 'क' अक्षर हो ता आग्नेय दिशामें खर-शल्य है अर्थात् गधेकी हड्डी दो हाथके नीचे होगी और उसमें राज-दण्ड होगा, तथा भय निवृत नहीं होगा, अर्थात् सदा भय बना रहेगा ।।१५।। यदि प्रश्नके प्रारम्भमें 'च' अक्षर हो तो दक्षिण दिशामें कटि ( कमर ) प्रमाण भूमिके नीचे नर-शल्य होगा और वह गृहस्वामीकी मृत्युको करेगा ॥१५८। यदि प्रश्नके प्रारम्भमें 'ट' अक्षर हो तो नैऋत्य दिशामें डेढ़ हाथ नीचे भूमितलमें कुत्तेकी हड्डी होगी और वह बालकोंकी मृत्यु करेगी ॥१५९॥ यदि प्रश्नके प्रारम्भमें 'त' अक्षर हो पश्चिम दिशामें डेढ़ हाथके नीचे भूमिमें शिवा ( सियालनी ) की हड्डी होगो और वह भवनके स्वामीके प्रवासका कारण होगी ॥१६॥ यदि प्रश्नके प्रारम्भमें 'ह' अक्षर हो तो भूमिको वायव्य दिशामें चार हाथके नीचे मनुष्यों को हड्डियां होंगी ओर वे मित्रोंका नाश करेंगी और रात्रिमें दुःस्वप्न दिखाई देंगे ॥१६१।। यदि १. अकचटएहसपज्जा इअ नव वण्णा कमेण लिहियव्वा । पुचाइदिसासु तहा भूमि काऊण वनिभाए ॥११॥ २. अप्पण्हे नरसल्लं सड्ढकरे मिच्चुकारगं पुवे । कप्पण्हे खरसल्लं अग्गीए दुकरि निवदंडं ॥१३॥ ३. जामे चप्पण्हेण नरसल्लं कडितलम्मि मिच्चुकरं । टप्पण्हे निरईए सढकरे साणुसल्लु सिसुहाणी ॥१४॥ ४. पच्छिम दिसि तयण्हे सिसुसल्लं करदुर्गाम्म परएसं । वायवि हपण्हि चउकरि अंगारा मित्तनासयरा ॥१५
* श्लोक १५५ से १६४ तक के १० श्लोक विश्वकर्मप्रकाश में ज्यों के त्यों पाये जाते हैं। देखो विश्वकर्म प्रकाश- अध्याय १२, श्लोक १२-२१ तक । सम्पादक
* अहिमंतिळणखडियं विहिपुन्वं कन्ना करे दाओ । आणाविज्बइ पण्हा इम अक्सरे सल्लं ॥१२॥
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