Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 4
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 576
________________ २३७ पुरुषार्थानुशासन प्रशस्ति परे च परमाचारा जिनसंघमुनीश्वराः। प्रसन्नमेव कुर्वन्तु मयि सर्वेऽपि मानसम् ॥६॥ कायस्थानामस्त्यथो माथुराणां वंशो लब्धामर्त्यसंसप्रशंसः। तत्रायं श्रोखेतलो बन्धुलोकैः खे तारोधैरुत्प्रकाशं शशीव ॥७॥ सुरगिरिरिव (प्रोच्चो) वारिधिर्वा गभोरो विधुरिव हतताप: सूर्यवत्सुप्रतापः । नरपतिरिव मान्यः कर्णवदयो वदान्यः समनि रतिपालस्तत्सुतः सोऽरिकालः ॥८॥ दुःशासनापापपरो नराग्रणीः सदोद्यतो धर्मसुतोऽर्थसाधने । ततः सुतोऽभूत्स गदाधरोऽपि यो न भीमतां क्वापि दधौ सुदर्शनः ॥९॥ स तस्मात्सत्पुत्रो बनितजनतासम्पवजनि क्षितो ख्यातः श्रीमानमरहरिरित्यस्तकुनयः । गुणा यस्मिस्ते श्रीनय-विनय-तेजःप्रभृतयः ___समस्ता ये व्यस्ता अपि न सुलभाः क्वापि परतः॥१०॥ महस्मदेशेन महामहीभुजा निजाधिकारिष्वखिलेष्वपोह यः । सम्मान्य नीतोऽपि सुधीः प्रधानतां न गर्वमप्यल्पमघत्त सत्तमः ॥११॥ परम विशुद्ध आचार वाले अन्य भी जो जिन-संघ के मुनीश्वर हैं वे सभा मुझ पर प्रसन्न होकर मेरे मानस को विकसित करें ॥ ६ ॥ ___ इस भारतवर्ष में माथुर-गोत्री कायस्थों का जो वंश अमरसिंह की राजसभा में प्रशंसा को प्राप्त है, उसमें बन्धु-लोगोंके साथ श्रीखेतल इस प्रकारसे शोभित होते हैं जैसे कि चन्द्रमा आकाशमें तारागणों के प्रकाश के साथ शोभता है ॥७॥ उस श्रीखेतलका पुत्र रतिपाल हुआ, जो सुमेरु के सदृश उन्नत है, सागर के समान गम्भीर है, चन्द्र के समान सन्ताप का विनाशक है, सूर्य के समान प्रतापशाली है, नरेन्द्र के समान मान्य है, कर्ण के समान उदार दाता है और शत्रुओं के लिए कालरूप है ॥ ८॥ वह नराग्रणी दुःशासन को निष्पाप करने में तत्पर है, धर्मपुत्र होकरके भी अर्थोपार्जन में सदा उद्यत रहता है, जो भीम-सदृश गदा को धारण करने पर भी किसी पर भयंकरताको धारण नहीं करता है ऐसा सुन्दर दर्शनीय गदाधर नामक उस रतिपाल के पुत्र हुआ ॥९॥ उस गदाधार के श्रीमान् अमरसिंह नाम के सुपत्र हुए, जिन्होंने अपने जन्म से जनता में सम्पत्ति को बढ़ाया, जिन्होंने खोटी नय-नीति का विनाश किया, और इस कारण भूतल पर प्रख्यात हुए । जिनमें लक्ष्मी, न्याय-नीति, विनय, तेज आदि वे सभी गुण एक साथ विद्यमान हैं, जो कि अन्यत्र कहीं पर भी एक-एक रूप से सुलभ नहीं हैं ॥ १०॥ महस्म देश के महान भूपाल के द्वारा अपने समस्त अधिकारी जनों पर सन्मान के साथ प्रधान के पद पर नियुक्त किये जाने पर भी जिस उत्तम बुद्धिमान् ने अल्प भी गर्व नहीं धारण किया। अहमहमिका-पूर्वक ( मैं पहिले प्राप्त होऊ, मैं उससे भी पहिले प्राप्त होऊँ इस प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598