________________
२४२
श्रावकाचार संग्रह
वासाघरेण सुषिया गाम्भीर्यादि तणीकृतो नाब्धिः । कथमन्यथा स बडवाज्वलनस्तत्र स्थिति ज्वलति ॥१०॥ सान्द्रानन्दस्वरूपातमहिमपरब्रह्मविद्याविनोदात
स्वान्तं जैनेन्द्रपादार्चन विमलविधो पात्रदानाच्च पाणिः । वाणी सन्मन्त्रजापात् प्रवचनरचनाकर्णनात्कर्णयुग्म
लोकालोकावलोकान्न विरमति यशः साधुवासाघरस्य ॥११॥ शीतांशू राजहंसत्यमितकुवलयत्युल्लसत्तारकालि
स्तिग्मांशुः स्मेररक्तोत्पलति जगदिदं चान्तरोयत्यशेषम् । जम्बालत्यन्तरिक्ष कनकगिरिरयं चक्रवाकत्युदनः साघोर्वासाबरोद्यद-गुणनिलययशोवारिपूरे त्वदीये ॥१२॥ द्वितीयोऽप्यद्वितीयोऽभद् वीर्योदार्यादिभिर्गुणः ।
पुत्रः श्रोसोमदेवस्य हरिराजाभिषः सुधीः ॥१३॥ गुणः सदास्मत्प्रतिपक्षभूतैः सङ्गं करोत्येष विवेकचक्षुः । इतोव सेष्यहरिराजसाघुर्दोषैरनालोकितशीलसिन्धः ॥१४॥ सम्प्राप्य रत्नत्रितयैकपात्रं रत्नं सुतं मण्डनमुर्वगयाः।
योसोमदेवः स्वकुटुम्बभारनिर्वाहचिन्तारहितो बभूव ॥१५॥ सुबुद्धि वासाधरने यदि अपनी गम्भीरतासे समुद्रको भी तृणके समान तुच्छ न किया होता, तो वह अपने भीतर जलते हुए वडवानलकी स्थितिको कैसे और क्यों धारण करता ॥ १०॥
- आनन्द घन स्वरूप अद्भुत महिमावाले परमब्रह्मके विद्या-विनोदसे जिसने अपने चित्तको पवित्र किया, श्री जिनेन्द्रदेवके चरण-अर्चनकी निर्मल विधि-विधानसे और पात्रोंको दान देनेसे जिसने अपने हाथ पवित्र किये, उत्तम मंत्रोंके जाप करनेसे जिसकी वाणी पवित्र हुई, प्रवचनकी रचनाओंके सुननेसे जिसके दोनों कान पवित्र हुए, उस वासाधरका यश लोक और अलोकके अवलोकनसे भी विश्राम को प्राप्त नहीं हो रहा है। भावार्थ यदि लोक और अलोकसे भी परे कहीं और भी आकाश होता, तो यह वहां भी फैलता हुआ चला जाता ।। ११॥
हे साधु वासाधर, तेरे उदयको प्राप्त होते हुए गुणोंके आस्पदभत यश रूपी जलके पूरमें अपरिमित कुमुदोंको विकसित करनेवाली तारकावली वाला शीत-किरणचन्द्र राजहंसके समान माचरण करता है, यह तीक्ष्ण किरणवाला सूर्य मन्दहास्य युक्त लाल कमलके समान मालम पड़ता है, यह समस्त जगत् अन्तर्गत-सा ज्ञात होता है, यह आकाश जम्बाल (काई) सा प्रतीत होता है, और यह उन्नत सुवर्णगिरि सुमेरु चक्रवाक सा भासित होता है ॥ १२ ॥
श्री सोमदेवका हरिराज नामक द्वितीय भी बुद्धिमान् पुत्र वीर्य, औदार्य आदि गुणोंके द्वारा अद्वितीय हुआ ॥ १३ ।। यह विवेकरूप नेत्रवाला हरिराज सदाहो हमारे प्रतिपक्षीरूप गुणोंके द्वारा संगमको प्राप्त हो रहा है, इसी कारण ईष्यांसे मानों यह शील-सागर हरिराज दोषोंसे मनालोकित ही है । अर्थात् उत्तम गुणोसे सम्पन्न हरिराजको देखकर दोष इसे देखने तकका भी साहस नहीं कर सके ॥१४॥
पृथिवीके आभूषणरूप एवं सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रयके एक मात्र पात्र रतन मामक पुत्रको प्राप्त करके श्रीसोमदेव अपने कुटुम्बभारके भरण-पोषणको चिन्तासे रहित हो गये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org