Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 4
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 582
________________ २४३ श्रावकाचारसारोबार प्रशस्ति हृष्टं शिष्टजनैः सपत्नकमलैः कुत्रापि लीनं जवा दथिप्रोद्धतनीलकण्ठनिवहेनुत्तं प्रमोदोदगमात् । तृष्णाधूलिकणोत्करविगलितस्थानमुनीन्द्रः स्थितं वृष्टिं दानमयीं वितन्वति परां रत्नाकराम्भोघरे ॥१६॥ सान्त्यतीनाम्न्यां पत्न्यां जिनराजध्यानकृत्स हरिराजः । पुत्रं मनःसुखाख्यं धर्मादुत्पादयामास ॥१७॥ सति प्रभुत्वेऽपि मदो न यस्य रतिः परस्त्रीषु न यौवनेऽपि । परोपकारकनिधिः स साधुर्मनःसुखः कस्य न माननीयः ॥१८॥ जैनेन्द्राज्रिसरोजभक्तिरचला बुद्धिविवेकाञ्चिता लक्ष्मीर्दानसमन्विता सकरुणं चेतः सुषामुग्वचः । रूपं शोलयुतं परोपकरणव्यापारनिष्ठं वपुः __ शास्त्रं चापि मनःसुखे गतमदं काले कलो दृश्यते ॥१९॥ सङ्घभारधरो धोरः साधुर्वासाधरः सुधीः । सिद्धये श्रावकाचारमचीकरममुं मुदः ॥२०॥ यावत्सागरमेखला वसुमती यावत्सुवर्णाचलः __ स्वारीकुलसङ्कलः खममितं यावच्च तत्त्वान्वितम् । सूर्याचन्द्रमसौ च यावदभितो लोकप्रकाशोधतो तावन्नन्दतु पुत्र-पौत्रसहितो वासाधरः शुद्धधीः ॥२१॥ थे ॥ १५ ॥ इस रतन नामक रत्नाकररूप जलधर ( मेघ) के दानमयी परम वर्षा करनेपर शिष्ट जन हर्षित हुए, प्रतिपक्षी कमलोंके साथ कुमुद कहींपर शीघ्र विलीन हो गये, अर्थी जनरूप नीलकण्ठवाले मयूरोंके समूहोंने प्रमोदके उदयसे हर्षित होकर नृत्त्य किया और तृष्णारूपी धूलिके कण-पंजोंसे रहित वीतरागी मुनीश्वरोंने निराकुल होकर निवास किया ।। १६ ॥ जिनराजका निरन्तर ध्यान करनेवाले हरिराजने सान्त्यती नामवाली अपनी पत्नीमें धर्मके प्रसादसे मनसुख नामका पुत्र उत्पन्न किया ॥ १७॥ जिसके प्रभुता होनेपर भी मद नहीं है, यौवनावस्था में भी पर-स्त्रियोंमें रति नहीं है, और जो पराया उपकार करनेका निधि या निधान है, ऐसा साधु मनसुख किसका माननीय नहीं है ? अर्थात् सभी जनोंका मान्य है ॥ १८॥ इस कलिकालमें भी जिस मनसुखके भीतर जिनेन्द्रदेवके चरण-कमलोंमें अविचल भक्ति, विवेक-युक्त बुद्धि, दान-समन्वित लक्ष्मी, करुणायुक्त चित्त, अमृतवर्षी वचन, शीलयुक्त रूप, परोपकार करने में तत्पर शरीर और मद-रहित शास्त्र ज्ञान दिखायी देता है ॥ १९ ॥ जैन संघके भारको धारण करनेवाले धीर, बुद्धिमान साहू वासाधरने आत्म-सिद्धिके लिए हर्षसे इस श्रावकाचारकी रचना करायो ॥ २०॥ जब तक समुद्ररूप मेखला वाली यह पृथिवी रहे, जब तक यह सुमेरु गिरि देवाङ्गनाओंके समूहसे व्याप्त रहे, जब तक जोवादि तत्त्वोंसे व्याप्त यह अपरिमित आकाश रहे और जब तक लोकमें प्रकाश करनेके लिए उद्यत सूर्य और चन्द्र रहें, तब तक पुत्र-पौत्र-सहित यह शुद्ध बुद्धि वासाधर आनन्दको प्राप्त करता रहे ॥ २१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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