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५. पुरुषार्थानुशासन प्रशस्तिः धीसद्महासः कुमुदाविलासस्तमोविनाशः सुपथप्रकाशः। यत्रोदितेऽत्र प्रभवन्ति लोके नमाम्यहं धीजिनभास्करं तम्॥१॥ दोषाप्रकाशः कमलावकाशस्तापस्य नाशः प्रसरश्च भासः। यत्र प्रसन्नेऽत्र जने भवन्ति धीमज्जिनेन्दुं तमहं नमामि ॥२॥ कुर्वन्तु धी-कैरविणी-समृद्धि विवेकवाधेश्च जनेऽत्र वृद्धिम् । श्रीमूलसंधाम्बरचन्द्रपादा भट्टारकश्रीजिनचन्द्रपादाः ॥३॥ विलसदमलकाष्ठासंघपट्टोदयाद्रा
वृदित उरुवचोंऽशध्वस्तदोषान्धकारः। बुधजन-जलजानामुद्विलासं ददानो
____ जयति मलयकोतिर्भानुसाम्यं दधानः ॥४॥ काष्ठासंघेऽनघयतिभिर्यः कान्तो भात्याकाशे स्फुरदुडुभिर्वा चन्द्रः । सत्प्रज्ञानां भवति न केषां नुत्यः कोल्चारः स कमलकोाचार्यः ॥५॥
प्रशस्ति का अनुवाद जिस श्रोजिनेन्द्ररूप सूर्य के उदय होने पर लक्ष्मी के सदनस्वरूप कमल का विकास होता है, और रात्रि में खिलने वाले कुमुदों का अविलास अर्थात् संकोच हो जाता है, अन्धकार का विनाश और इस लोक में सुमार्ग का प्रकाश होता है, उस श्री जिनेन्द्रसूर्य को मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥
जिसके प्रसन्न होने पर दोषा अर्थात् रात्रि में प्रकाश होता है और कमलों का संकोच हो जाता है, सूर्य के ताप का विनाश होता है और प्रकाश का विस्तार होता है, ऐसे उस श्रीमान् जिनचन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ॥ २॥
जो श्रीमूलसंघरूप गगन के चन्द्र-किरणरूप हैं ऐसे श्री भट्टारक जिनचन्द्र के चरण इस (ग्रन्थकार) जन में अथवा इस लोक में बुद्धिरूपी कुमुदिनी की समृद्धि करें और विवेकरूप समुद्र की वृद्धि करें॥३॥
उस विलसित निर्मल काष्ठा संघ के पट्टरूप उदयाचल पर जिसके उदित होते ही उदार वचनरूप किरणों से दोषरूप रात्रि का अन्धकार नष्ट हो जाता है, और जो विद्वज्जनरूप कमलों को हर्षरूप विकास देता है, इस प्रकार सूर्य की समता को धारण करने वाले भी मलयकोत्ति महाराज जगत् में जयवन्त हैं ॥ ४ ॥
__ जो काष्ठासंघरूप आकाश में निर्दोष चारित्रके धारक साधुजनों से इस प्रकार शोभा को प्राप्त हो रहे हैं, जैसे कि चमकते हुए तारागणों से चन्द्र शोभित होता है। ऐसे श्रीकमलकीत्ति आचार्य अपनी कत्ति और सदाचार से किन सत्-प्रज्ञावाले जनों के नमस्कार के योग्य
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