Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 4
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 578
________________ २३९ पुरुषार्यानुशासन प्रशस्ति यं वोक्येति वितयंते सुकविभिर्नीत्वा तनुं मानवों धर्मोऽयं नु नयोऽयवाऽथ विनयः प्रामः प्रजापुण्यतः॥१८॥ यशो यलक्ष्मणस्यणलक्ष्मणात्रोपमीयते । शङ्के न तत्र तैः साक्षाच्चिल्लक्षलक्ष्म लक्षितम् ॥१९॥ श्रीमान् सुमित्रोन्नतिहेतुजन्मा सल्लक्षण: सन्नपि लक्ष्मणाख्यः। रामातिरक्तो न कदाचनाऽऽसीदघाच्च यो रावणसोदरत्वम् ॥२०॥ स नय-विनयोपेतर्वाक्यमुंहः कविमानसं सुकृत-सुकृतापेक्षो दक्षो विधाय ममुद्यतम् । श्रवणयुगलस्याऽऽत्मीयस्यावतंसकृते कृतीस्तु विशदमिद शास्त्राम्भोजं सुबुद्धिरकारयत् ॥२१॥ अथाऽस्त्यग्रोतकानां सा पृथ्वी पृथ्वीव सन्ततिः । सच्छायाः सफला यस्यां जायन्ते नर-भूखहाः ॥२२॥ गोत्रं गाय॑मलञ्चकार य इह श्रीचन्द्रमाश्चन्द्रमो विम्बास्यस्तनयोऽस्य घोर इति तत्पुत्रश्च होगाभिषः । देहे लन्धनिजोद्भवेन सुधियः पद्मश्रियस्तस्त्रियो नव्यं काव्यमिदं व्यधायि कविताहत्पादपद्यालिना ॥२३॥ (पदादिवर्णसंजेन गोविन्देनेति ) का शरीर धारण करके क्या यह प्रजा के पुण्य से धर्म प्राप्त हुआ है, अथवा नय-मार्ग ही आया है, या विनय ही आया है ॥ १८॥ जिन कवियों के द्वारा लक्ष्मण के यश की मगलाञ्छन चन्द्रमा को उपमा दी जाती है, उन्होंने साक्षात् चैतन्यरूप लाखों लक्षणों से युक्त इसे नहीं जाना है, ऐसी में शंका करता हूँ। अर्थात् यह लक्ष्मण चन्द्रमा से भी अधिक शुभ लक्ष्म (चिह्न) वाला है ॥ १९॥ यह श्रीमान् लक्ष्मण सुमित्रा से जन्म लेने वाला हो करके भी लक्ष्मण नाम से प्रसिद्ध है, और राम में अति अनुरक्त होकरके भी जिसने रावण के सहोदर विभीषण को विभीषणता को कभी नहीं धारण किया है ॥ २०॥ ___अनुनय-विनय से युक्त वचनों के द्वारा उस सुकृती और सुकृत (पुण्य) की अपेक्षा रखने वाले सुचतुर सुबुद्धि, कृती लक्ष्मण ने कवि के हृदय को प्रोत्साहित करके अपने कर्ण-युगल के आभूषणार्थ इस विशद शास्त्ररूप कमल का निर्माण कराया ॥ २१ ॥ अग्रोतक (अग्रवाल) लोगों की सन्तति स्वरूपा पृथ्वी के समान यह पृथिवी है, जिसमें उत्तम छाया वाले और फलशाली मनुष्यरूप वृक्ष उत्पन्न होते हैं ।। २२॥ उस अग्रोतक जाति में इस भूतल पर जिसने गर्ग गोत्र को अलंकृत किया, ऐसा चन्द्र के समान मुखवाला श्रीचन्द्र पैदा हुया। इसके धीर वीर हींगा नाम का पुत्र उत्पन्न हुवा। उस सुबुद्धि को पद्मश्री नाम की स्त्री के देह में जिसने जन्म प्राप्त किया है, ऐसे अरहन्तदेव के पाद-पद्यों के भ्रमररूप इस गोविन्द कवि ने यह पुरुषार्थानुशासनरूप नवीन काव्य रचा है ॥ २३ ॥ ___ इस २३ वें पद्य के प्रथम पाद के 'गो', दूसरे पाद के वि' तीसरे पाद के 'दे' और चौथे पाद के 'न' इन बाब अक्षरों के द्वारा अपना 'गोविन्द' यह नाम प्रकट किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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