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कुन्दकुद श्रावकाचार
शिरोत्तिः पीनसः श्लेष्मा लाला नयनयोस्तथा। आकुलत्वं क्षणाद् रोममहर्ष धुमसेवनात् ॥८३ विषदुष्टाशनास्वादात्काकः थामस्वरो भवेत् । लोयते मक्षिका नात्र विलीना वा विपद्यते ॥८४ अन्नं सविषमाघ्राय भृगस्त्यजति चाधिकम् । सारिका सविषान्ने तु विकोशयति यथा शुकः ॥८५ विषान्नदर्शनान्नेत्रे चकोरस्य विरज्यतः । म्रियते कोकिलोन्मत्ता क्रौञ्चो माद्यति तत्क्षणात् ॥८६ नकुलो हुष्टरोमा स्यान्मयूरस्तु प्रमोदते । अस्य चालोकमात्रेण विषं मन्दायते क्षणात् ।।८७ उदगं याति मार्जारः परीषं करते कपिः। गतिः स्खलति सस्य ताम्रचडो विरौतिचा साविषं देहिभिः सर्व भक्षमाण करोत्यलम् । तुष्टमि विमामाप्स्ये दाहं लाला जलप्लवम् ॥८९ हनुस्तम्भं रसज्ञायां कुरुते शूलागौरवे। तथा क्षाररसाज्ञानं दाता चास्याकुलो भ्रमेत् ॥९० स्फाटिकष्टणक्षारो धार्यः पुंसां मुखान्तरे । वेत्ति न क्षारता यावदित्युक्तं स्थावरे विषे ॥९१
इत्थं चतुर्थप्रहरार्धकृत्यं सूर्योदयादत्र मया बभाषे।
यत्कुर्वतां देहभृतां नितान्तं आविर्भवत्येव न रोगयोगः ॥१२॥ समान अनेक वर्णों की माला जैसे रूपोंको धारण करता है। अग्नि फैलती हुई सड़ी वस्तुको गन्धवाली और मन्द तेजवालो हो जाती है ।।८२।। विष-मिश्रित अन्नवाली अग्निके सेवनसे शिरमें पीडा हो जाती है. नाक में पीनस रोग हो जाता है. कंठमें कफकी वद्धि हो जाती है. मखसे लार बहने लगती है, तथा नेत्रोंसे आँसू बहने लगते हैं, शरीरमें आकुलता हो जाती है और रोम खड़े हो जाते हैं ।।८३॥ विष-मिश्रित अन्नके खानेसे काकका स्वर क्षीण हो जाता है। विष-मिश्रित अन्नपर प्रथम तो मक्खियाँ बैठतो नहीं है और कदाचित बैठ भी जाय तो शीघ्र मर जाती हैं ॥८४।। विषयुक्त अन्नको सूंघकर भौंरा और अधिक शब्द करने लगता है। तथा स-विष अन्नके देखने-संघनेपर सारिका (मैना) शक (तोता) के समान शब्दोंको बोलने लगती है। अन्नके देखनेसे चकोर पक्षीके नेत्र विवर्ण हो जाते हैं, उन्मत्त कोयला मरणको प्राप्त हो जाती है और क्रौंच पक्षी तत्क्षण मूच्छित हो जाता है ।।८६।। नकुल (नेवला) के रोम, हर्षित हो उठते हैं, मयूर प्रमोदको प्राप्त होता है और उसके अवलोकन मात्रसे विष क्षणभरमें मन्द पड़ जाता है ॥८७।। विषयुक्त अन्नके देखनेसे मार्जार (विलाव) उद्वेगको प्राप्त हो जाता है, बन्दर मल. मोचन करने लगता है। हंसकी चाल स्खलित होने लगती है और ताम्रचूड (मुर्गा) जोर-जोरसे शब्द करने लगता है ।।८८॥ प्राणियोंके द्वारा खाया गया विष या विष-मिश्रित अन्न सारे शरीरको विषयुक्त कर देता है, मुखमें दाह होने लगता है, लाला जल-प्लावित हो जाती है, अर्थात् मुखसे बार-बार प्रचुर लार गिरने लगती है ।।८९|| हनु ( ठोड़ी) स्तब्ध हो जाती है अर्थात् अकड़ जाती है, रसोंका स्वाद जाननेवाली रसना (जीभ) के शूल जैसी पीड़ा और भारीपनका अनुभव होने लगता है तथा विष खानेवालेके खारे रसका ज्ञान नहीं होता। और विषका दाता आकुल-व्याकुल होकर परिभ्रमण करने लगता है ॥९०॥ विषको खाये हुए पुरुषोंके मुखके भीतर रखे गये स्फटिक और टंकण (सुहागा) के क्षारको वह तबतक नहीं जानता है जबतक कि स्थावर (पार्थिव) विष उसके शरीर में प्रभाव-युक्त रहता है ॥९१।।।
इस प्रकार इस उल्लासमें मैंने सूर्योदयसे लेकर भोजन करके विश्राम करने तक चतुर्थ पहरके अर्धभाग तकके कर्तव्योंको कहा। इन कर्तव्योंका परिपालन करनेवाले मनुष्योंके कभी भी रोगका संयोग सर्वथा आविर्भूत नहीं होता है ।।१२।।
इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्दस्वामि-विरचित श्रावकाचारमें दिनचर्याके
वर्णन करनेमें तीसरा उल्लास पूर्ण हुआ।
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