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अथ एकादशोल्लासः
पूर्वोक्तयत्नसन्दोहैः पालितं देहपञ्जरम् । श्लाघ्यं स्याद् ब्रह्महंसस्य विद्याधारो वृथाऽन्यथा ॥ १ मुग्धानां वर्धते क्षेत्रपाकाद्यं भववारिधिः । धोमतामपि शास्त्रौघरध्यात्मविकलैर्भृशम् ॥ २ करोत्यप्यहनिशं कार्यं बहुभिर्ग्रन्थगुम्फनैः । विद्वद्भिस्तत्त्वमालोक्यमन्तर्ज्योतिमयं महत् ॥ ३ जन्मान्तरसंस्कारात्प्रसादावथवा गुरोः । केषाञ्चिज्जायते स्वस्वे वासना विशवात्मनाम् ||४ अहं बत सुखी दुःखी गौरः श्यामो दृढोऽदृढः । ह्रस्वो दीर्घो युवा वृद्धो दुरत्यजेयं कुवासना ॥५ जातिपाखण्डयोर्येषां विकल्पाः सन्ति चेतसि । वार्ताभिस्तेः श्रुतं तत्त्वं न पुनः परमार्थतः ॥६ तावत्तत्त्वं कृतो यावद् भेदः स्वपरयोर्भवेत् । नगरारण्ययोर्भेदे कथमेकत्ववासना ॥७ धर्मः पिता क्षमा माता कृपा भार्या गुणाः सुताः । कुटुम्बं सुषियां सत्यमेतदन्ये तु विभ्रमाः ॥८ पादबन्धदृढं स्थूलकटीभागं भुजार्गलम् । धातुभित्ति नवद्वारं देहं गेहं सुयोगिनः ॥९ कान्ताप्रकाशमेकान्तं पवित्रं विपुलं समम् । समाधिस्थानमच्छेद्यं सद्भिः साम्यस्य साधकम् ||१० शमाग्निः समदोषश्च समधातुः शमोऽक्षयः । सुप्रसन्नेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यधिभीयते ॥ ११
पूर्वोक्त नाना प्रयत्नोंके समूहसे पालित यह देहरूप पींजरा यदि ब्रह्मरूप हँसकी विद्याका आधार हो तो प्रशंसाके योग्य है, अन्यथा वह व्यर्थ है ||१|| मूर्ख पुरुपोंका संसार-समुद्र क्षेत्र, काल आदिके विपाकसे वृद्धिको प्राप्त होता है । इसी प्रकार बुद्धिमानोंका भी संसार समुद्र अध्यात्मशून्य शास्त्रोंके समूहसे भी अति वृद्धिको प्राप्त होता है ॥ ३॥ यद्यपि रात-दिन इन शास्त्रज्ञोंके द्वारा ग्रन्थोंकी रचनाओंसे पुण्यकार्य किया जाता है, तथापि विद्वज्जनोंको अन्तर्ज्योतिमय महान् तत्त्वका अवलोकन ( दर्शन ) करना चाहिए ||४|| पूर्व जन्मके संस्कारसे अथवा गुरुके प्रसादसे कितने ही निर्मल आत्माओंको आत्म-तत्त्वमें वासना होती है ||४|| अहो, में सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं गोरा हूँ, मैं काला हूं, मैं दृढ़ हूँ, में दृढ़ नहीं हूं, मैं छोटा हूँ, में बड़ा हूं, मैं जवान और में बूढ़ा हूं, यह कुवासना छोड़ना बहुत कठिन होती है ||५|| जिन पुरुषोंके चित्तमें जाति और पाखण्डसम्बन्धी विकल्प होते हैं, उन लोगोंने वार्त्ताओंसे तत्त्वको सुना है, किन्तु परमार्थसे तत्त्वको नहीं सुना है || ६ || तब तक तत्त्वका अभ्यास करना चाहिए, जब तक कि स्व और परका भेद ज्ञान उत्पन्न होवे । यदि तत्त्वज्ञके मनमें यह नगर है और यह वन हैं, ऐसा भेद हो तो आत्माके एकत्त्व की भावना कैसे उत्पन्न हो सकती है ? अर्थात् कभी भी उत्पन्न नहीं हो सकती ||७|| धर्म मेरा पिता है, क्षमा माता है, दया भाई है और सद्गुण ही मेरे पुत्र हैं, बुद्धिमानोंका तो यही सच्चा कुटुम्ब है । इससे अन्य विकल्प तो विभ्रमरूप ही हैं ॥ ८॥
जिसके पाद-बन्ध (पद्मासन) दृढ़ है, कटिभाग स्थूल है, भुजारूप अर्गला है, सप्त धातुरूप भित्ति और नौ द्वार हैं, ऐसा यह देह ही उत्तम योगीका गेह है ||९|| सुन्दर स्त्रियोंसे रहित, अथवा सुरम्य और प्रकाशयुक्त ऐसा पवित्र एकान्त, विशाल समभाव और अच्छेद्य समाधिस्थान मे हो सन्त पुरुषोंके द्वारा साम्यभावके साधक माने गये हैं ||१०|| राम-अग्निवाला, सम दोषवाला, सम धातुवाला, राम, अक्षयी, सुप्रसन्न इन्द्रिय और मनवाला पुरुष ही स्वस्थ कहा जाता है ॥११॥ जां
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