Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 4
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 568
________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार-प्रशस्ति २२९ यह लभं भवभृतां भवकाननेऽस्मिन् बम्भ्रम्यतां विविधदुःखमृगारिभीमे। रत्नत्रयं परमसौख्यविधायि तन्मे द्वधाऽस्तु देव तव पादयुगप्रसादात् ॥३०॥ अज्ञानभावाद्यदि किञ्चिदूनं प्ररूपितं क्वाप्यधिकं च भाषे। सर्वज्ञवक्त्रोद्धविके हि तन्मे क्षान्त्वा हृदब्जेऽधिवसेः सदा त्वम् ॥३१॥ यावतिष्ठति भूतले जिनपतेः स्नानस्य पीठं गिरिस्त्वाकाशे शशिभानुबिम्बमधरे कूर्मस्य पृष्ठे मही। व्याख्यानेन च पाठनेन पठनेनेदं सदा वर्ततां । तावच्च श्रवणेन चित्तनिलये सन्तिष्ठतां धीमताम् ॥३२॥ भूयासुश्चरणा जिनस्य शरणं तद्दर्शने मे रतिभूयाजन्मनि जन्मनि प्रियतमासङ्गादिमुक्ते गुरौ। सद्भक्तिस्तपसश्च शक्तिरतुला द्वेधाऽपि मुक्तिप्रदा ग्रन्थस्यास्य फलेन किञ्चिदपरं याचे न योगेस्त्रिभिः ॥३३॥ व्याख्याति वाचयति शास्त्रमिदं शृणोति विद्वांश्च यः पठति पाठयतेऽनुरागात्। अन्येन लेखयति वा लिखति प्रदत्ते स स्याल्लघु श्रुतधरश्च सहस्रकीतिः ॥३४॥ शान्तिः स्याज्जिनशासनस्य सुखदा शान्तिनुपाणां सदा शान्तिः सुप्रजसां तपोभरभृतां शान्तिर्मुनीनां मुदा। नाना प्रकार के दुःखरूपी सिंहों से भयानक इस भव-कानन (वन) में परिभ्रमण करते हुए संसारी प्राणियोंको परम सुखदायक रत्नत्रय अति दुर्लभ है। हे देव ! आपके चरण-युगलके प्रसादसे वह निश्चय-व्यवहार रूप दोनों ही प्रकारका रत्नत्रय मेरेको प्राप्त होवे ॥३०॥ अज्ञानभावसे यदि कहीं पर कुछ तत्त्व कम कहा हो, या अधिक कहा हो, तो हे सर्वज्ञमुखसे प्रकट हुई सरस्वतो देवि ! मुझे क्षमा करके मेरे हृदय-कमलसे सदा निवास करो॥३१॥ जब तक इस भूतल पर जिन-देवोंका स्नान-पीठरूप सुमेरु पर्वत विद्यमान हैं, आकाशमें सूर्य और चन्द्रबिम्ब हैं, अधोलोकमें कछुएकी पीठपर यह पृथ्वी स्थित है, तब तक यह ग्रन्थ व्याख्यान, पठन-पाठनसे और सुननेसे बुद्धिमानोंके हृदय-कमलमें सदा विराजमान रहे ॥३२॥ इस ग्रन्थकी रचनाके फलसे मेरे जन्म-जन्ममें अर्थात् जब तक मैं संसारमें रहूँ तब तक श्री जिनदेवके चरण मेरे लिए सदा शरण रहें, उनके दर्शन करने में मेरे सदा अनुराग रहे, प्रियतमा स्त्रोके संगमसे तथा परिग्रहसे रहित गुरुमें सद्-भक्ति रहे, मुक्तिको देनेवाले दोनों ही प्रकारके तप करनेकी मुझे अतुल शक्ति प्राप्त हो। इसके अतिरिक मै त्रियोगसे कुछ भी नहीं मांगता हूँ॥३३॥ जो विद्वान् इस शास्त्रको अनुरागसे व्याख्यान करता है, वांचता है, सुनता है, पढ़ता है, पढ़ाता या पढ़वाता है, दूसरेसे लिखवाता है, अथवा स्वयं लिखता है और जिज्ञासु जनोंके देता है, वह सहस्र कीत्तिवाला होकर अल्प ही समयमें श्रुतधर अर्थात् शास्त्रोंका पारगामी श्रुतकेवली हो जाता है ॥३४॥ जिन शासनकी सुख-दायिनी शान्ति सदा बनी रहे, राजा लोगोंकी सदा शान्ति प्राप्त हो, प्रजाजनोंको शान्ति-लाभ हो, तपश्चरण करनेवाले मुनि गणोंके मनको प्रमुदित करनेवाली शान्ति ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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