Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 4
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 567
________________ २२८ श्रावकाचार संग्रह. मेघाविनाम्नः कविताकृतोऽयं श्रीनन्दनोऽर्हत्पदपद्मभृङ्गः । यो नन्दनोऽभूज्जिनदाससंज्ञोऽनुमोदकोऽस्यास्तु सुदृष्टिरेषः ॥ २२ ॥ सामन्तभद्र- वसुनन्दिकृतं समीक्ष्य सच्छ्रावकाचरणसारविचारहृद्यम् । आशाधरस्य च बुधस्य विशुद्धवृत्तेः श्रोधर्मसङ्ग्रहमिमं कृतवानहं भो ॥२३॥ यद्यत्र दोषः क्वचिदर्थजातः शब्देषु वा छान्दसिकोऽथवा स्यात् । युक्त्या विरुद्धं गदितं मया यत्संशोध्य तत्साधुधियः पठन्तु ॥२४॥ शास्त्रं प्राच्यमतीव गभीरं पृथुतरमथैर्ज्ञातुमलं कः । तस्मादल्पं पिच्छलममलं कृतमिदमन्योपकृतौ नूत्नम् ॥२५॥ गर्वा मयाऽकारि न कोर्सों न च धनमाननिमित्तं त्वेतत् । हितबुद्धधा केवलमपरेषां स्वस्य च बोधविशुद्धिविवृद्धये ॥ २६ ॥ सद्दर्शनं निरतिचारमवन्तु भव्याः श्राद्धा विशन्तु हित पात्रजनाय दानम् । कुर्वन्तु पूजनमहो जिनपुङ्गवानां पान्तु व्रतानि सततं सह शीलकेन ॥२७॥ गाढं तपन्तु जिनमार्गरता मुनीन्द्राः सम्भावयन्तु निजतत्त्वमवद्यमुक्तम् । धर्मो भवेद्विजयवान् नृपतिः पृथिव्यां दुर्भिक्षमत्र भवतान्न कदाचनापि ॥ २८ ॥ राज्यं न वाञ्छामि न भोगसम्पदो न स्वर्गवासं न च रूपयौवनम् । सर्वं हि संसारनिमित्तमङ्गिनां तदात्वमृष्टं क्षणिकं च दुःखदम् ॥ २९ ॥ इस कविता करनेवाले मेधावी नामक कविका जिनदास नामक पुत्र जो श्री देवीका नन्दन, अरहन्त देवके चरण कमलोंका भ्रमर और सम्यग्दृष्टि है, वह इस ग्रन्थ रचनाका अनुमोदक है ||२२|| हे पाठको! श्री समन्तभद्र, वसुनन्दि और आशाधरकृत उत्तम श्रावकाचारोंके सारभूत हार्दको हृदयङ्गम करके मुझ मेधाविने इस श्रीधर्मसंग्रह नामके श्रावकाचारको रचा है ||२३|| इस ग्रन्थरचनायें जो कहीं पर अर्थ-गत, शब्दगत, छन्द- सम्बन्धी और युक्ति के विरुद्ध यदि मैंने कहा तो उत्तम बुद्धिवाले सज्जन उसे संशोधन करके पढ़ें ||२४|| प्राचीन शास्त्र अतीव गम्भीर और विशाल हैं, उनके पूर्ण अर्थको जाननेके लिए कौन समर्थ है ? इसलिए मैंने यह निर्मल, संक्षिप्त और नवीन ग्रन्थ अन्य जनोंके उपकारके लिए रचा है ||२५|| मैंने इसकी रचना न गर्वसे की है, कीर्ति लिए की है और न धन-सन्मानके निमित्तसे की है । किन्तु केवल दूसरों के लिए हितबुद्धिसे और अपने ज्ञान और विशुद्धिकी वृद्धिके लिए की हैं ||२६|| अहो भव्यजनो ! निरतिचार सम्यग्दर्शन की रक्षा करो, श्राद्ध जन अर्थात् सम्यग्दृष्टि श्रावक गण हितैषी पात्र जनोंके लिए दान देवें, जिनेश्वर देवकी पूजन करें और सप्तशीलोंके साथ निरन्तर पांच व्रतोंका पालन करें ||२७|| जिनमार्ग में संलग्न मुनिराज प्रगाढ़ तपको तपें, और निर्दोष, जिनोक्त-आत्म-तत्त्व की भावना करें । पृथ्वी पर राजा धार्मिक एवं विजयवान् हो और इस भूमण्डल पर कभी भी दुर्भिक्ष हो ||२८|| मैं न राज्य-पानेकी वांछा करता हूँ, न भोग-सम्पदा चाहता हूँ, न स्वर्गका निवास चाहता हूँ, न रूप और यौवन चाहता हूँ । क्योंकि ये सभी वस्तुएँ संसार बढ़ाने की निमित्त हैं, जीवोंको तात्कालिक क्षणिक सुखद हैं, किन्तु अन्तमें तो महादुःखप्रद हीं हैं ||२९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598