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श्रावकाचार संग्रह.
मेघाविनाम्नः कविताकृतोऽयं श्रीनन्दनोऽर्हत्पदपद्मभृङ्गः । यो नन्दनोऽभूज्जिनदाससंज्ञोऽनुमोदकोऽस्यास्तु सुदृष्टिरेषः ॥ २२ ॥ सामन्तभद्र- वसुनन्दिकृतं समीक्ष्य सच्छ्रावकाचरणसारविचारहृद्यम् । आशाधरस्य च बुधस्य विशुद्धवृत्तेः श्रोधर्मसङ्ग्रहमिमं कृतवानहं भो ॥२३॥ यद्यत्र दोषः क्वचिदर्थजातः शब्देषु वा छान्दसिकोऽथवा स्यात् । युक्त्या विरुद्धं गदितं मया यत्संशोध्य तत्साधुधियः पठन्तु ॥२४॥ शास्त्रं प्राच्यमतीव गभीरं पृथुतरमथैर्ज्ञातुमलं कः । तस्मादल्पं पिच्छलममलं कृतमिदमन्योपकृतौ नूत्नम् ॥२५॥ गर्वा मयाऽकारि न कोर्सों न च धनमाननिमित्तं त्वेतत् । हितबुद्धधा केवलमपरेषां स्वस्य च बोधविशुद्धिविवृद्धये ॥ २६ ॥ सद्दर्शनं निरतिचारमवन्तु भव्याः श्राद्धा विशन्तु हित पात्रजनाय दानम् । कुर्वन्तु पूजनमहो जिनपुङ्गवानां पान्तु व्रतानि सततं सह शीलकेन ॥२७॥ गाढं तपन्तु जिनमार्गरता मुनीन्द्राः सम्भावयन्तु निजतत्त्वमवद्यमुक्तम् । धर्मो भवेद्विजयवान् नृपतिः पृथिव्यां दुर्भिक्षमत्र भवतान्न कदाचनापि ॥ २८ ॥ राज्यं न वाञ्छामि न भोगसम्पदो न स्वर्गवासं न च रूपयौवनम् । सर्वं हि संसारनिमित्तमङ्गिनां तदात्वमृष्टं क्षणिकं च दुःखदम् ॥ २९ ॥
इस कविता करनेवाले मेधावी नामक कविका जिनदास नामक पुत्र जो श्री देवीका नन्दन, अरहन्त देवके चरण कमलोंका भ्रमर और सम्यग्दृष्टि है, वह इस ग्रन्थ रचनाका अनुमोदक है ||२२|| हे पाठको! श्री समन्तभद्र, वसुनन्दि और आशाधरकृत उत्तम श्रावकाचारोंके सारभूत हार्दको हृदयङ्गम करके मुझ मेधाविने इस श्रीधर्मसंग्रह नामके श्रावकाचारको रचा है ||२३|| इस ग्रन्थरचनायें जो कहीं पर अर्थ-गत, शब्दगत, छन्द- सम्बन्धी और युक्ति के विरुद्ध यदि मैंने कहा तो उत्तम बुद्धिवाले सज्जन उसे संशोधन करके पढ़ें ||२४|| प्राचीन शास्त्र अतीव गम्भीर और विशाल हैं, उनके पूर्ण अर्थको जाननेके लिए कौन समर्थ है ? इसलिए मैंने यह निर्मल, संक्षिप्त और नवीन ग्रन्थ अन्य जनोंके उपकारके लिए रचा है ||२५|| मैंने इसकी रचना न गर्वसे की है, कीर्ति लिए की है और न धन-सन्मानके निमित्तसे की है । किन्तु केवल दूसरों के लिए हितबुद्धिसे और अपने ज्ञान और विशुद्धिकी वृद्धिके लिए की हैं ||२६||
अहो भव्यजनो ! निरतिचार सम्यग्दर्शन की रक्षा करो, श्राद्ध जन अर्थात् सम्यग्दृष्टि श्रावक गण हितैषी पात्र जनोंके लिए दान देवें, जिनेश्वर देवकी पूजन करें और सप्तशीलोंके साथ निरन्तर पांच व्रतोंका पालन करें ||२७||
जिनमार्ग में संलग्न मुनिराज प्रगाढ़ तपको तपें, और निर्दोष, जिनोक्त-आत्म-तत्त्व की भावना करें । पृथ्वी पर राजा धार्मिक एवं विजयवान् हो और इस भूमण्डल पर कभी भी दुर्भिक्ष हो ||२८||
मैं न राज्य-पानेकी वांछा करता हूँ, न भोग-सम्पदा चाहता हूँ, न स्वर्गका निवास चाहता हूँ, न रूप और यौवन चाहता हूँ । क्योंकि ये सभी वस्तुएँ संसार बढ़ाने की निमित्त हैं, जीवोंको तात्कालिक क्षणिक सुखद हैं, किन्तु अन्तमें तो महादुःखप्रद हीं हैं ||२९||
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