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________________ २२७ धर्मसंग्रह श्रावकाचार-प्रशस्ति भव्याम्भोजविरोचनो हरशशाङ्काभस्वकीयोज्ज्वलो नित्यानन्वचिदात्मलीनमनसे तस्मै नमो भिक्षवे ॥१५॥ यः कक्षापटमात्रवस्त्रममलं धत्ते च पिच्छं लघु लोचं कारयते सकृत् करपुटे भुङ्क्ते चतुर्यादिभिः । दीक्षां श्रौतमुनि बभार नितरां सत्क्षुल्लकः साधकः, आर्यो दीपक आख्ययाऽत्र भुवनेऽसौ दीप्यतां दोपवत् ॥१६॥ छात्रोऽभूज्जैनचन्द्रो विमलतरमतिः श्रावकाचारभव्यस्त्वग्रोतानकजातोद्वरुणतनुरुहो भोषहीमातसुतः। मीहाख्यः पण्डितो वै जिनमतनयनः श्री हिसारे पुरेऽ स्मिन् ग्रन्थः प्रारम्भि तेन श्रीमहति वसता नूनमेष प्रसिद्ध ॥१७॥ सपादलक्षे विषयेऽतिसुन्दरे श्रिया पुरं नागपुरं समस्ति यत् । पेरोजखानो नृपतिः प्रपाति यन्न्यायेन शौर्येण रिपूग्निहन्ति च ॥१८॥ नन्दन्ति यस्मिन् धन-धान्यसम्पदा लोकाः स्वसन्तानगणेन धर्मतः । जैना घनाश्चैत्यगृहेषु पूजनं सत्पात्रदानं विदधत्यनारतम् ॥१९॥ चान्द्रप्रभे सद्मनि तत्र मण्डिते कूटस्थसत्कुम्भसुकेतनादिभिः। महाभिषेकादिमहोत्सवैलसत्प्रवृद्धसङ्गीतरसेन चानिशम् ॥२०॥ मेधाविनामा निवसन्नहं बुधः पूर्ण व्यधां ग्रन्थमिमं तु कात्तिके । चन्द्राब्धिबाणकमितेऽत्र (१५४१) वत्सरे कृष्ण त्रयोदश्यहनि स्वशक्तितः ॥२१॥ ऐसे विमलकोति मुनि हुए। नित्य आनन्द स्वरूप आत्मामें जिनका हृदय तल्लीन है, उन साधु विमलकीर्ति महाराज के लिये मेरा नमस्कार है ।।१५।। जो निर्मल खंडवस्त्रमात्र तथा पिच्छो धारण करते हैं, केशोंका लोंच करते हैं, जो दो-दो तीन-तीन दिन बाद एक ही वक्त अपने पाणिपात्र में आहार करते हैं, जिन्होंने श्री श्रुतमुनिसे दीक्षा धारण की है वे श्रेष्ठ क्षुल्लक दोपकभिक्षु इस संसारमें दीपकके समान देदीप्यमान होवें ॥१६॥ अत्यन्त निर्मल बुद्धिके धारक, श्रावकाचारके पालन करने में सरल चित्त, अग्रोतकुल अग्रवाल वंशमें उत्पन्न होने वाले उद्वरुणके पुत्र, भीषुहीनाम जननी से उत्पन्न तथा जिन शासनके एक अद्वितीय नेत्र, श्रीमीहा नाम पंडित जिनचन्द्र मुनिका शिष्य हुआ । लक्ष्मीसे सुन्दर तथा प्रख्यात श्री हिसारपुरमें रहने वाले उस पण्डित मीहाने इस (धर्मसंग्रह) ग्रन्थके रचनेका काम आरम्भ किया ॥१७॥ लक्ष्मीसे अतिशय मनोहर सपादलक्ष देशमें नागपुर नामका पुर है। पेरोजखान नाम राजा उसका पालन करता है वह अपने शत्रु समूहका विध्वंस नीति और वीरताके साथ करता है ॥१८॥ जिस नागपुर में सर्वलोक धन्य धान्यादि विभूतिसे, अपने पुत्र पौत्रादि सन्तान समूहसे तथा धर्मसे सदा आनन्दित रहते हैं। और जैन धर्मानुयायी सज्जन पुरुष निरन्तर जिन मन्दिरमें जिन भगवान् का पूजन तथा पात्रदानादि उत्तमउत्तम कर्म करते हैं ॥१९॥ वहाँ नागपुर (नागोर) में कूटोंपर स्थित उत्तम कलशोंसे और ध्वजा आदिसे मंडित, तथा महाभिषेक आदि महोत्सव से शोभित और निरन्तर संगीत रससे प्रवर्धमान है ऐसे चन्द्रप्रभ भगवानके मन्दिरमें हिसार निवासी मेघावी नामक मुझ पंडितने अपनी शक्तिके अनुसार संवत् १५४१ कार्तिक वदी त्रयोदशीके दिन इस धर्मसंग्रह नाम ग्रन्थको समाप्त किया ॥२०-२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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