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श्रावकाचार संग्रह
तस्मानोरनिषेरिवेन्दुरभवन्ट्रोमन्जिनेन्दुगंगी स्यावादाम्बरमण्डले कृतगतिदिग्वाससां मण्डनः । यो व्याल्यानमरोचिभिः कुवलये प्रसादनं चक्रिवान् सव-वृत्तः सकल: कलङ्कविकलः षट्कर्मनिष्णातधोः॥१२॥ श्रीमत्पुस्तकगच्छसागरनिशानायः श्रुतादिमुनिअतिाहन्मततर्ककर्कशतयाऽन्यान् वादिनो योऽभिनत् । तस्मावष्टसहस्त्रिका पठितवान् विद्वद्धिरन्यैरहं सोऽयं सूरिमतल्लिका विजयते चारित्रपात्रं भुवि ॥१३॥ सूरिश्रीजिनचन्द्रकस्य समभूद रत्नादिकोतिमुनिः शिष्यस्तत्त्वविचारसारमतिमान् सद्ब्रह्मचर्यान्वितः । योऽनेकमुनिभिस्त्वणुवतिभिराभातीह मौण्ड्यगणी चन्द्रो व्योम्नि यथा ग्रहैः परिवृतो भैश्चोल्लसत्कान्तिमान् ॥१४॥ तच्छिष्यो विमलादिकोतिरभवन्निग्रन्थचूडामणि
यो नानातपसा जितेन्द्रियगणः क्रोधेभकुम्भे भृणिः। किया ॥११॥ जिस प्रकार जलधिसे चन्द्रमा समुद्भूत होता है उसी तरह शुभचन्द्र मुनिराजके पट्टपर विराजमान होने वाले, जिस प्रकार चन्द्रमाका गमन आकाशमें होता है उसी तरह स्याद्वादरूप गगनमण्डलमें विहार करने वाले, जिस प्रकार शशि दिशाओंका भूषण होता है उसी तरह दिगम्बर मुनिराजोंके अलंकार स्वरूप, जिस प्रकार चन्द्रमा अपने मयूख मंडलसे पृथ्वीमें आह्लाद करता है उसी तरह जिन-शासनाभिमत पदार्थ-द्योतक व्याख्यान रूप किरण मण्डलसे अखिल वसुन्धरावलयमें आह्लाद करने वाले, जिस प्रकार चन्द्रबिम्ब सद्वृत्त (गोलाकार) है उसी तरह उत्तम-उत्तम आचरणोंके धारक, जिस प्रकार कुमुदबान्धव षोड़श कला सहित होता है उसी तरह अनेक प्रकार की कलाओंसे मण्डित, इतनी समानता होने पर भी चन्द्रमासे विशेष गुणके भाजन ॥१२॥ चन्द्रमा तो कलंक सहित होता है और यह कलंक रहित गे। तथा जिनकी विदुषी बुद्धि षडावश्यक पालनेमें अतिशय समर्थ थी ऐसे जिनचन्द्र मुनिराज हुए। जिस प्रकार चन्द्रमण्डलके उदयसे नीरधि वृद्धिको प्राप्त होता है उसी तरह लक्ष्मी विभूषित श्रीपुस्तकगच्छ रूप रत्नाकरके बढ़ानेके लिये शशिमण्डल तुल्य श्रृ तमुनि हुए। जिन्होंने जिन शासन सम्बन्धित प्रमाणशास्त्रकी कठोरतासे परवादियोंका अभिमान भंग किया। उन्हीं श्रुतमुनि से सपा और-और विद्वानोंसे मैंने अष्टसहस्री पढ़ी। जो वसुन्धरावलयमें उत्तम-उत्तम चारित्रके धारण करने योग्य पात्र हैं वे ही आचार्यवयं श्रीश्रुतमुनि विजयको प्राप्त होवें ॥१३॥ आचार्य श्री जिनचन्द्रके-जीवादितत्वोंके विचारसे तीक्ष्ण बुद्धिशाली तथा पवित्र ब्रह्मचर्यसे मण्डित श्रीरत्नकीत्ति मुनि शिष्य हुए। जो अपने संगमें अनेक मुनियों तथा अणुव्रतके धारी क्षुल्लक ऐलकादि साधु समूहसे ऐसे शोभाको प्राप्त होते हैं समझो कि विशद गगनमण्डलमें शोभनीय कान्तिविलसित चन्द्रमा जिस तरह ग्रह तथा तारागणसे मण्डित शोभता है ॥१४॥ उन रत्नकीर्ति मुनिके-निग्रन्थमुनियोंके चूड़ामणि, अनेक प्रकारके दुर्द्धर तपश्चरणादिसे इन्द्रियोंको जीतने वाले, बोध रूप गजराजको अपने अधीन करनेके लिए अंकुशके समान, भव्यजनरूप कमलोंके विकसित करनेके लिये सूर्य समान, तथा अष्टमीके चन्द्रमाको कान्ति समान अपनी विशद कीतिसे उज्ज्वल
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