Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 4
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 563
________________ ३. धर्मसंग्रह श्रावकाचार-प्रशस्ति स्वस्तिथीतिलायमानमुकुटघृष्टाज्रिपाथोरहे स्वस्त्यानन्दचिदात्मने भगवते पूजाहते चाहते। स्वस्ति प्राणिहितङ्कराय विभवे सिद्धाय बुद्धाय ते स्वस्त्युत्पत्तिजराविनाशरहितस्वस्थाय शुद्धाय ते ।१ वाग्भातपत्रचमरासनपुष्पवृष्टीपिण्डोद्रुमामरमृदङ्गरवेण लक्ष्यः । येऽनन्तबोधसुखदर्शनवार्ययुक्तास्ते सन्तु नो जिनवराः शिवसौख्यदा वै ॥२॥ सम्यक्त्वमुख्यगुणरत्नतदाकरा ये संभूय लोकशिरसि स्थितिमादधानाः। सिद्धा सदा निरुपमा गतमूत्तिबन्धा भूयासुराशु मम ते भवदुःखहान्यं ॥३॥ मूलोत्तरादिगुणराजिविराजमानाः क्रोधादिदूषणमहोध्रतडित्समानाः। ये पञ्चधाचरणचारणलब्धमाना नन्दन्तु ते मुनिवरा बुधवन्द्यमानाः ॥४॥ येऽध्यापयन्ति विनयोपनतान् विनेयान् स द्वादशाङ्ग मखिलं रहसि प्रवृत्तान् । अर्थ दिशन्ति च धिया विधिवद्विदन्तस्तेऽध्यापका हृदि मम प्रवसन्तु सन्तः ॥५॥ रत्नत्रयं द्विविधमप्यमृताय नूनं ये ध्यानमौननिरतास्तपसि प्रधानाः । संसाधयन्ति सततं परभावयुक्तास्ते साधवो ददतु वः श्रियमात्मनीनाम् ॥६॥ प्रशस्तिका अनुवाद स्वर्गके तिलकसमान इन्द्रके मुकुटोंसे जिनके चरण-कमल घिसे जाते हैं, जिनके चरणसरोजों में इन्द्र आकर नमस्कार करता है, उनके लिये कल्याण हो । जिनकी आत्मा आनन्दरूप है ऐसे पूजनीय अर्हन्त भगवानके लिए कल्याण हो। अखिल संसार के जीवोंका उपकार करने वाले विभव-स्वरूप तथा बुद्धस्वरूप सिद्धभगवान् के लिये कल्याण हो । और उत्पत्ति (जन्म), वृद्धावस्था (जरा) तथा मरणसे रहित निरन्तर ज्यों के त्यों स्थित रहने वाले शुद्ध स्वरूपके लिये कल्याण हो ॥१॥ दिव्यध्वनि, भामण्डल, छत्र, चामर, आसन, पुष्प वृष्टि, अशोकतरु तथा देवदुन्दुभि इन आठ प्रातिहार्योंसे केवलज्ञान दशाको प्रगट करने वाले तथा अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, अनन्तदर्शन से विभूषित जिनभगवान हमलोगों के लिये मोक्ष सुख के प्रदाता हों ।।२।। जिनमें सम्यक्त्व प्रधान है ऐसे जो ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अगुरुलघु, अव्याबाधादि गुणरत्न हैं उनके आकर (खानि) होकर लोकाकाशके शिखर पर अपनी स्थिति को करने वाले, निरुपम (जिनका उपमान संसार में कोई नहीं है जिसकी उनको उपमा दी जाय) तथा मूर्तिमान पुद्गलादिके सम्बन्ध रहित (अमूर्तिक) सिद्धभगवान् मेरे संसार दुःखों के नाश करने वाले हों ।।३।। अट्ठाईस मूलगुण तथा चौरासी लाख उत्तरगुण की राजि (माला) से शोभायमान, क्रोध, मान, माया, लोभादि दोष रूप पर्वत के खण्ड करने में बिजली के समान, पंचप्रकार चारित्रके धारण करने से जिन्हें सन्मान प्राप्त हुआ है तथा बुद्धिमान लोग जिन्हें अपना मस्तक नवाते हैं ऐसे मुनिराज दिनों दिन वृद्धि को प्राप्त होवें ॥४॥ जो एकान्तमें विनयपूर्वक आये हुए शिष्य लोगोंको सर्व द्वादशांगशास्त्र पढ़ाते हैं तथा अपनी बुद्धिसे उसके अर्थका उपदेश करते हैं विधिपूर्वक सर्व शास्त्रोंके जाननेवाले वे अध्यापक (उपाध्याय) मेरे हृदय कमलमें प्रवेश करें ।।५।। जो ध्यान तथा मौनमें लोन हैं जो तपश्चरणादि के करने में सदैव अग्रगण्य समझे जाते हैं, जो शिव सदनके अनुपम सुखके लिये व्यवहार तथा निश्चय रत्नत्रयका साधन करते हैं, शत्रु मित्रोंको एक समान जानने वाले वे साधु (मुनिराज) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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