________________
कुन्दकुन्द श्रावकाचार
१२१ एक एव ध्रुवं जन्तुर्जायते म्रियतेऽपि च । एक एवं सुखं दुःखं भुक्ते चान्योऽस्ति नो सुखम् ॥३४ देहार्थे बन्धुमात्रादि सर्वमन्यत्वतस्ततः । युज्यते नैव कुत्रापि शोकः कतुं विवेकिना ॥३५ रसासृग्मांसमेदास्थिमज्जाशुक्रमये पुरे । नवस्रोत.परीते च शौचं नास्ति कदाचन ॥३६ कषाविषयोगः प्रमादैङ्गिभिर्नवम् । रौद्रातनियमाज्ञत्वेश्चात्र कर्म प्रबध्यते ॥३७ कर्मोत्पत्तिविघातार्थ संदराय नतोऽस्म्यहम् । यश्छिनत्ति समास्त्रेण शुभाशुभमयं त्रुमम् ॥३८ सुसंयविवेकोघेरकोमोग्रतपोऽग्निना । संसारकारणं कर्म जरणीयं महात्मभिः ॥३९ शरावसम्पुटाधःस्थमुखैकशराववत् । पूर्ण चिन्त्यं जगद द्रव्यैः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकैः ।।४०
दुर्लभेऽपि मनुष्यत्वे प्राप्ते जीवः श्रुतादिभिः ।
आसन्नसिद्धिकः कश्चिद् बुध्यते तत्त्वनिश्चयम् ॥४१ श्रेष्ठो धर्मस्तपः भान्तिमार्दवावसूनतः । शौचाकिञ्चन्यकरुणाब्रह्मत्यागैश्च सम्मतः ।।४२ भावनीयाः शुभध्यानभव्यदिश भावनाः । एता हि भवनाशिन्यो भवन्ति भविनां किल ॥४३ गोदुग्धस्याकंदुग्धस्य यद्वत्स्यादन्तरं महत् । धर्मस्याप्यन्तरं तद्वत्फलेऽमुत्रापरत्र च ॥४४
यह जन्तु अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही सुख और दुःखको भोगता है। इसका अन्य कोई सगा साथी नहीं है और न कोई सुख है। यह एकत्व भावना है ।।३४।। शरीरके अर्थमें ही यह बन्धु है, यह माता है, इत्यादि सम्बन्ध कहे जाते हैं, वस्तुतः सभी अपनेसे भिन्न है। इसलिए विवेकी पुरुषको उनके वियोग आदि किसी भी दशामें शोक करना योग्य नहीं है। यह अन्यत्व भावना है ॥३५॥ रस, रक्त, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्यमयी इस शरीर रूप नगरमें जोकि नव मल-द्वारोंसे व्याप्त है, कभी भी शुचिता-पवित्रता सम्भव नहीं है। यह अशुचिभावना है ॥३६॥ इस संसारमें कषायोंसे, इन्द्रिय-विषयोंसे, योगोंसे, प्रमादोंसे, रौद्र-आतध्यानसे और व्रत-नियमादिकी अजानकारीसे सदा नवीन कर्मको यह जीव बाँधता रहता है। यह आस्रवभावना है ॥३७॥ कर्मोंकी आस्रवरूप उत्पत्तिके विनाशार्थ संवरके लिए मैं विनत हूँ, जोकि समभावरूप अस्त्रके द्वारा शुभ-अशुभरूप इस संसार-वृक्षका छेदन करता है उत्तम संयमके द्वारा, . विवेक आदिके द्वारा तथा अविपाकरूप उग्रतपोग्निके द्वारा महान् आत्माओंको संसारका कारणभूत कर्म निर्जीर्ण करना चाहिए। यह निर्जरा भावना है ॥३९|| शराव-सम्पुटके नीचे स्थित एक मुखवाले शराबके समान आकारवाला यह जगत् स्थिति, उत्पत्ति और व्ययस्वभावी द्रव्योसे परिपूर्ण चिन्तवन करना चाहिए। यह लोक भावना है ॥४०॥ अति दुर्लभ इस मनुष्यभवके प्राप्त करनेपर कोई निकट भव्यजीव शास्त्राभ्यासादिके द्वारा तत्त्व-निश्चय करके सम्यग्ज्ञानरूप बोधिको प्राप्त करता है। यो बोधिदुर्लभ भावना है ॥४१॥ तप, क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, आकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्य और त्यागके द्वारा श्रेष्ठ धर्म माना गया है। यह धर्म भावना है ।।४२|| भव्यपुरुषोंको ये बारह भावनाएं शुभ ध्यानके द्वारा सदा भाना चाहिए। क्योंकि सन्यक् प्रकारसे भावित ये भावनाएं ही संसारी जीवोंके संसारका नाश करनेवाली होती हैं ।।४३।। ।
जिस प्रकार गायके दूध और आकड़ेके दूधमें महान् अन्तर है, उसी प्रकार सद्-धर्म और असद्-धर्म तथा उनके इसलोक और परलोकमें प्राप्त होनेवाले फलमें भी महान् अन्तर है ॥४४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org