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श्रावकाचार-संग्रह स्वस्थः पद्मासनासीनः संयमैकधुरन्धरः । क्रोधाद्यैरनाक्रान्तः शीतोष्णाद्यैर िजतः ॥१२ भोगेभ्यो विरतः काममात्मदेहेऽपि निःस्पृहः । स्वपतौ दुर्गतेऽन्येऽपि सममानसवासनः ॥१३ समीरण इवाविद्धः सानुमानिव निश्चलः । इन्दुवज्जगदानन्दी शिशुवत्सरलाशयः ॥१४ सर्वक्रियासु निर्लेपः स्वस्मिन्नात्मावबोधकृत् । जगदप्यात्मवज्जानन् कुर्वन्नास्ममयं मनः ॥१५ मुक्तिमार्गरतो नित्यं संसाराच्च विरक्तिभाक् । गीयते धर्मतत्त्वज्ञोमान् ध्यानक्रियोचितः ॥१६
(पञ्चभिः कुलकम् ) विश्वं पश्यति शुद्धात्मा यद्यप्युन्मत्तसन्निभः । तथापि वचनेनापि मर्यादां नैव लङ्घयेत् ॥१७ कुलीनाः सुलभाः प्रायः सुलभाः शास्त्रशालिनः । सुशीलाश्चापि सुलभा दुर्लभा भुवि तात्त्विकाः ॥१८ अपमानादिकान् दोषान् मन्यते स पुमान् किल । सविकल्पं मनो यस्य निर्विकल्पस्य ते कुतः ॥१९ मयि भक्तो जनः सर्व इति हृष्येन्न साधकः । मय्यभक्तो जनः सर्व इति कुप्येन्न वा पुनः ॥२० अन्तश्चित्तं न शुद्धं चेद्वहिः शौचे न शौचभाक् । सुपक्वमपि निम्बस्य फले बीज कटु स्फुटम् ।।२१ यस्यात्ममनसोभिन्नरुच्यो मैत्री निवर्तते । योगविघ्नः समं मित्रैस्तस्येच्छा कौतुके कुतः ॥२२ कालेन भक्ष्यते सर्व स केनापि न भक्ष्यते। अभक्षाभक्षको योगी येन द्वावपि भक्ष्यते ॥२३
पुरुष स्वस्थ है, पद्मासनसे स्थित है, एकमात्र संयमकी धुराका धारण करनेवाला है, क्रोध आदि कषायोंके आक्रमणसे रहित है, शीत-उष्ण आदि परीषहोंको जीतनेवाला है, इन्द्रियोंके भोगोंसे विरक्त है. अपने शरीरमें भी सर्वथा निःस्पह है, धनके स्वामित्त्वमें और निर्धनतामें भी समान चित्तकी वासनावाला है, वायके समान निर्लेप है, पर्वतके समान निश्चल है, चन्द्रके समान जगत् को आनन्द-दायक है, शिशुके समान सरल हृदय है, संसारिक सभी क्रियाओं अलिप्त है, अपने आत्म-बोध करनेवाला है, सारे संसारको अपने समान जानता है, मनको आत्मामें संलग्न करनेवाला है, मोक्षमार्गमें निरत है और संसारसे सदा ही विरक्त रहता है, ऐसा बुद्धिमान् पुरुष ही धर्म तत्त्वके ज्ञाताजनोंके द्वारा ध्यान करनेके योग्य कहा गया है ।।१२-१६॥
___ यद्यपि शुद्ध आत्मावाला व्यक्ति सारे विश्वको उन्मत्तके सदृश देखता है, तथापि वचनके द्वारा भी लोक-मर्यादाका उल्लंघन नहीं करता है ॥१७॥ इस लोकमें कुलीन पुरुष प्रायः सुलभ हैं, शास्त्रोंका परिशीलन करनेवाले भी सुलभ हैं और उत्तम शीलवाले भी पुरुष सुलभ हैं, किन्तु तत्त्वके मर्मको जाननेवाले पुरुष दुर्लभ है ॥१८॥ जिसका मन विकल्पोंसे भरा हुआ है, वह पुरुष निश्वयतः दूसरोंके द्वारा किये गये अपमान आदि दोषोंको मानता है। किन्तु निर्विकल्पवाले पुरुषके वे अपमानादि दोष कैसे सम्भव हैं ? अर्थात् विकल्प-रहित पुरुष अपमान आदिको कुछ भी नहीं गिनता है ।।१९।। सर्वजन मेरे भक्त हैं, ऐसा समझकर आत्म-साधक पुरुषको हर्षित नहीं होना चाहिए। तथा सब लोग मेरे अभक्त हैं, ऐसा मानकर उसे किसी पर क्रोधित नहीं होना चाहिए ॥२०॥
जिसका अन्तरंगमें चित्त शुद्ध नहीं है, वह बाहिरी शारीरिक शुद्धिसे शुद्ध नहीं कहा जा सकता। नीमके भले प्रकारसे पके हुए फलमें बीज तो स्पष्टरूपसे कटु स्वादवाला ही रहता है ॥२१॥ जिसके आत्मा और मनकी भिन्न रुचिवाली मैत्री दूर हो जाती है, उसके योग-साधनमें विघ्न करनेवाले मित्रोंके साथ सांसारिक कौतूहलमें इच्छा कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती ॥२२॥ संसारके सर्व पदार्थ कालके द्वारा भक्षण कर लिए जाते हैं, किन्तु योगी पुरुष किसी
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