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कुकुर बावकाचार आगतं बीजमन्यस्य क्षेत्रेऽन्यस्य निधीयते । चित्र क्षेत्रज्ञ एवात्र प्ररोहति यदा तदा ॥५८ परमाणोरति स्वल्पं स्वमति व्यापकं किल। तो जितो येन माहात्म्यान्नमस्तस्मै परात्मने ॥५९ आत्मद्रव्ये समीपस्थे योऽपरद्रव्यसम्मुखम् । भ्रान्त्या विलोकयत्यज्ञः कस्तस्माद् बालिशो नरः ॥६० परात्मगतिसंस्मृत्या चित्र संसारसागरः । असंशयं भवत्येव प्राणिनां चुलुकोपमः ॥६१ आत्मानमेव संसारमाहुः कर्मभिर्वेष्टितम् । तदेव कर्मनिमुक्तं साक्षान्मोक्षं मनीषिणः ॥६२ अयमात्मैव निष्कर्मा केवलज्ञानभास्करः । लोकालोकं यदा वेत्ति प्रोच्यते सर्वगस्तदा ॥६३ शुभाशुभैः परिक्षीणैः कर्मभिः केवलो यदा । एकाको जायते शून्यः स एवात्मा प्रकोत्तितः ॥६४ लिङ्गत्रयविनिर्मुक्तं सिद्धमेकं निरञ्जनम् । निराधयं निराहारमात्मानं चिन्तयेद बुधः ॥६५ जितेन्द्रियत्वमारोग्यं गात्रलाघवमार्दवे । मनो वचनवन्नृणां प्रसत्तिश्चेतनोदये ॥६६ ।। बुभुक्षामत्सरानङ्गमानमायाभयक्रुधाम् । निद्रालोभादिकानां च नाशः स्यादात्मचिन्तनात् ॥६७ लयस्यो दृश्यतेऽभ्यासी जागरूकोऽपि निश्चलः । प्रसुप्त इव सानन्दो दर्शनात्परमात्मनः ॥६८
है। किन्तु वह आत्मा इन इन्द्रियोंको देखता-जानता है, इसलिए वह क्षेत्रज्ञ लक्ष कहा जाता है ॥५७॥ अन्यका आया हुआ बीज अन्यके क्षेत्र (खेत) में डाला (बोया) जाता है, (यह लोकपरम्परा है)। किन्तु आश्चर्य है कि यहाँ पर यह क्षेत्रज्ञ आत्मा ही जब तब (स्वयं) अंकुरित होता है ॥५८॥
यह आत्म तत्त्व परमाणसे भी अति स्वल्प या सूक्ष्म है, किन्तु आश्चर्य है कि वह स्वयं अतिव्यापक है। जिसने अपने माहात्म्यसे स्वल्प या व्यापक इन दोनों रूपोंको जीत लिया है, उस परमात्माके लिए मेरा नमस्कार है ॥५९।। आत्म द्रव्यके समीपमें स्थित होते हुए भी जो पुरुष अन्य द्रव्यके सम्मुख भ्रान्तिसे देखता है, उससे अधिक मूर्ख कौन मनुष्य होगा ॥६०॥ परमात्माकी गतिके संस्मरणसे प्राणियोंका यह संसार-सागर निःसंदेह चुल्लु-भर जलके समान हो जाता है, यह आश्चर्यकी बात है ॥६१।।
कर्मोंसे वेष्टित इस आत्माको ही मनीषी जन संसार कहते हैं और कर्मोस निमुक्त उसी आत्माको ज्ञानीजन साक्षात् मोक्ष कहते हैं ।।६२।। कर्म-रहित यह आत्मा ही केवल-ज्ञानरूप सूर्य होकर जब लोक और अलोकको जानता-देखता है, तब वह सर्वग-सर्वव्यापी या सर्वज्ञ कहा जाता है ॥६३॥ शुभ और अशुभ कर्मो के सर्वथा क्षीण हो जाने पर जब यह केवल अकेला रह जाता है. तब वही आत्मा 'शून्य' कहा जाता है ।६४।। स्त्री, पुरुष और नपुसक इन तीनों लिगोंसे विमुक्त एक निरंजन, निराश्रय, निराहार आत्मा ही सिद्ध स्वरूप परमात्मा है, ऐसा ज्ञानीजनोंको चिन्तवन करना चाहिए ॥६५॥
__शुद्ध चेतनाका उदय होने पर मनुष्योंके मन और वचनकी प्रसन्नताके समान जितेन्द्रियता, आरोग्य, शरीर-लाघव और मार्दव गुण प्रकट होते हैं ॥६६॥ आत्मस्वरूपके चिन्तन करनेसे खानेपीने की इच्छा, मत्सरभाव, काम-विकार, मान, माया, भय, क्रोध, निद्रा और लोभ आदि विकारोंका नाश हो जाता है ॥६७॥ ध्यानका अभ्यास करनेवाला आत्मा परमात्माके दर्शनसे लय ( समाधि ) में स्थित सरोखा दिखता है, जागरूक होते हुए भी निश्चल-सा और आनन्द-युक्त होते हुए भी गाढ़ निद्रामें सोये हुए सा प्रतीत होता है ।।६८||
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