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लोयते यत्र कुत्रापि स्वेच्छया चपलं मनः । निराबा तयेवास्तु ज्यालतुल्यं हि चालितम् ॥४६ मनश्चक्षुरिदं याववज्ञाने तिमिरावृतम् । तत्त्वं न वोक्यते तावद्विषयेष्वेव मुह्यति ॥४७ जन्म मृत्युनं दौस्थ्यं स्व-स्वकाले प्रवर्तते । तदस्मिन् क्रियते हन्ति चेतश्चिन्ता कयं त्वया ॥४८ पथा तिष्ठति निष्कम्पो दीपो निर्वातवेश्मगः । तथैषोऽपि पुमान्नित्यं क्षीणोः सिद्धवत्सुखी ॥४९ विकल्पविरहादात्मज्योतिरुन्मेषवद् भवेत् । तरङ्गविगमाद दूरं स्फुटं (स्थिरो) भवाम्बुधिः ॥५० विषयेषु न युञ्जीत तेभ्यो नापि निवारयेत् । इन्द्रियाणि मनःशाम्याच्छाम्यन्ति स्वयमेव हि ॥५१ इन्द्रियाणि निजार्थेषु गच्छन्त्येव स्वभावतः । स्वान्ते रागो विरागो वा निवार्यस्तत्र धीमता ॥५२ . यातु नामेन्द्रियग्रामः स्वान्तादिष्टो यतस्ततः । न चालनीयः पञ्चास्यसन्निभो वालितोबलात ॥५३ निर्लेपस्यानिरूपस्य सिद्धस्य परमात्मनः । चिदानन्दमयस्यास्य स्यान्नरो रूपजितः ॥५४ स्वर्णाविबिम्बनिष्पत्ती कृते निर्मदनेऽन्तरा। ज्योतिःपूर्षे च संस्थाने रूपातीतस्य कल्पना ।।५५ यद दृश्यते न तत्तत्त्वं यत्तत्वं तन्न दृश्यते । देवात्मनोयोमध्ये भावस्तत्त्वे विधीयताम् ॥५६ अलक्ष्यः पञ्चभिस्तावदिन्द्रियनिकटैरपि । स तु लक्षयते तानि क्षेत्रज्ञो लक्ष इत्यसो ॥५७
चंचलस्वभावी मन युक्तिसे निश्चल हो जाता है।॥४५॥ यह चंचल मन जिस किसी ध्येय वस्तुपर लीन हो जाता है, वह उसी प्रकारसे निराबाध रहना चाहिए । अन्यथा किसी विकल्पसे चलाया गया यह मन सांपके समान भयंकर होता है ।।४६।। अन्धकारसे आवृत यह मन और नेत्र जबतक अज्ञानमें संलग्न रहते हैं, तबतक आत्मतत्त्व नहीं दिखाई देता है और यह जीव इन्द्रियोंके विषयों में ही मोहित रहता है ||७||
जन्म, मरण, धन-सम्पत्ति और निर्धनता ये सब अपने-अपने समय आनेपर होते हैं। दुःख है कि हे मन, तू इस विषयमें चिन्ता कैसे करता है ॥४८॥ जिस प्रकार वायु-रहित गहके भीतर अवस्थित दोपक निष्कम्प रहता है, उसी प्रकार यह पुरुष भी चंचल बुद्धिको छोड़कर सिद्धके समान सुखी रहता है ।।४९|| विकल्पोंके अभावसे आत्म-ज्योति प्रकाशवान् होती है। जैसे कि तरंगोंके अभावसे समुद्र स्थिर और प्रशान्त रहता है, उसी प्रकार मनकी विकल्परूप तरंगोंके दूर होनेसे यह भव-सागर भी स्थिर और शान्त रहता है ॥२०॥ इन्द्रियोंको विषयोंमें न लगावे, और न उनसे निवारण ही करे। क्योंकि मनके शान्त हो जानेसे इन्द्रियाँ स्वयं ही शान्त हो जाती है ॥५१। इन्द्रियां स्वभावसे ही अपने विषयोंमें जाती हैं। किन्तु बुद्धिमान् पुरुषको अपने चित्तमें इन्द्रिय-विषय-सम्बन्धी राग या द्वेष निवारण करना चाहिए ॥५२॥ मनसे प्रेरित हुआ इन्द्रिय-समुदाय यदि इधर-उधर जाता है तो जाने दो। किन्तु पंचानन-सिंहके समान अपने प्रशान्त आत्मारामको बलात् इधरसे उधर नहीं चलाना चाहिए ॥५३॥
कर्म-लेपसे रहित, रूप-रसादिसे रहित, सत्-चिद्-आनन्दमयी इस सिद्ध परमात्माके ध्यानसे यह ध्याता पुरुष भी रूपातीत हो जाता है ॥५४॥ सुवर्ण आदि धातुओंसे मूत्तिके निर्माण करने में सांचेरूप कृतिके विनष्ट कर देने पर अन्दर जैसा बाकार रहता है, उसी प्रकार ज्ञान ज्योतिसे परिपूर्ण पुरुषाकार शरीर-संस्थानमें रूपातीत सिद्ध-परमात्माकी कल्पना जाननी चाहिए ॥५५॥ जो दिखाई देता है; वह आत्मस्वरूप तत्त्व नहीं हैं और जो आत्मस्वरूप तत्त्व है, वह दिखाई नहीं देता है। किन्तु देह और आत्मा इन दोनोंके मध्य-वर्ती तत्त्वमें अपना भाव लगाना चाहिए ॥५६॥ निकटवर्ती होते हुए भी इन पांचों इन्द्रियोंसे वह बाला कक्ष्य है, अर्वाद देखनेमें नहीं आता
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