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कुन्दकुन्द श्रावकाचार या शक्यते न केनापि पातुं किल परा किल । यस्ता विशत्यविश्रान्तं स एवामृतपायकः ॥२४ अगम्यं परमस्थानं यत्र गन्तुं न पार्यते। तत्रापि लाघवाद् गच्छन्नगम्यगमको मतः ।।२५ ब्रह्मात्मनि विचारी यो ब्रह्मचारी स उच्यते । अमैथुनः पुनः स्थूलस्तादृक् षण्ढोऽपि यद् भवेत् ॥२६ अनेकाकारतां धत्ते प्राणी कर्मवशंगतः। कर्ममुक्तः स नो धत्ते तमेकाकारमादिशेत् ॥२७ दुःखी किमिति कोऽप्यत्र नरः पापं करोति किम । मुक्तिर्भवेद्धि विश्वस्य मतिमत्रीति कथ्यते ॥२८ दोषनिर्मुक्तवृत्तीनां धर्मसर्वस्वाशनाम् । योऽनुरागो गुणेषच्चैः स प्रमोदः प्रकीयंते ॥२९ भीतार्तदीनलीनेषु जीविताथिषु वाञ्छितम् । शक्त्या यत्पूर्यते नित्यं करुणा सात्र विश्रुता ॥३० मोहान्धादद्विषतां धर्म निर्भयं कुर्वतामघम् । स्वश्लाधिनां च योपेक्षा माध्यस्थ्यं तदुदीरितम् ॥३१ विभवश्च शरीरं च बहिरात्मा निगद्यते । तदधिष्ठायको जीवस्त्वन्तरात्मा सकर्मकः ।।३२ निरातङ्को निराकारो निर्विकल्पो निरञ्जनः। परमात्मा स योऽत्यक्षो ज्ञेयोऽनन्तगुणोच्चयः ॥३३ के द्वारा भी खाया नहीं जाता है । योगी पुरुष अभक्ष्योंका अभक्षक है, क्योंकि उसके द्वारा काल
और अपमान ये दोनों ही भक्षण कर लिए जाते हैं ॥२३॥ निश्चयसे जो परा-आत्मविद्या है, वह किसी भी सांसारिक वासनाओंमें ग्रस्त पुरुषके द्वारा पान करनेके लिए शक्य नहीं है किन्तु जो पुरुष विना विश्राम लिए निरन्तर उसमें प्रवेश करता है, वही निश्चयसे अमृत-पायी है ॥२४॥ परम ब्रह्मका स्थान अगम्य है, क्योंकि वहाँ पर जानेके लिए कोई पार नहीं पाता है। किन्तु उस अगम्य स्थान पर लघुतासे अर्थात् संकल्प-विकल्पोंके भारसे रहित होनेके कारण जानेवाला योगी अगम्यगमक माना जाता है ॥२५॥
ब्रह्मरूप आत्मामें जो विशेष रूपसे विचार कर विचरण करता है वह ब्रह्मचारी कहा जाता है । जो मैथुन-सेवी नहीं है, वह तो स्थूल या बाह्य ब्रह्मचारी है। वैसा स्थूल ब्रह्मचारी तो नपुंसक भी होता है ॥२६॥ कर्मके वशीभत हुआ प्राणी संसारमें अनेकों आकारोंको धारण करता है। किन्तु कर्मोसे मुक्त हुआ आत्मा अनेक आकारोंको नहीं धारण करता है, उसे एक आकारवाला कहना चाहिए ॥२७॥
इस संसारमें कोई भी प्राणी दुःखी क्यों है ? (यदि पापके उदयसे वह दुःखी है तो) वह मनुष्य पाप क्यों करता है ? सर्व प्राणियोंकी कर्मोसे मुक्ति हो, इस प्रकारकी बुद्धिको 'मैत्री भावना' कहा जाता है ॥२८॥ राग-द्वेषरूप दोषोंसे रहित मनोवृत्तिवाले और धर्म-सेवनको ही सर्वस्व समझनेवाले पुरुषोंका जो उत्तम गुणोंमें और गुणीजनोंमें अनुराग होता है, वह प्रमोद कहा जाता है ।।२९॥ भय-भीत, दु खोंसे पीड़ित और दीन-दरिद्री जीवोंपर तथा जीनेके इच्छुक जनोंपर अपनी शक्तिके अनुसार जो उनकी इच्छाको नित्य पूर्ण किया जाता है, वह इस लोकमें 'करुणा' नामसे प्रसिद्ध है ॥३०॥ मोहसे अन्धे होनेके कारण जो धर्मसे द्वेष करते हैं और निर्भय होकर पाप करते हैं तथा अपनी प्रशंसा करते हैं (और दूसरोंको निन्दा करते हैं) उन लोगोंके ऊपर जो उपेक्षाभाव रखा जाता है, उसे मध्यस्थभावना कहा गया है ॥३१॥
वैभव और शरीर ही मेरा सब कुछ है, ऐसा माननेवाला मनुष्य बहिरात्मा कहा जाता है। इस शरीरका अधिष्ठाता जीव है और वह इस शरीरसे भिन्न और कर्म-सहित है, ऐसा
माननेवाला जीव अन्तरात्मा कहा जाता है ॥३२॥ जो सर्वप्रकारके आतंक-रोगादिसे रहित है, • निराकार है, निर्विकल्प है, कर्मरूप अंजनसे रहित है वह परमात्मा है और जो इन्द्रियोंसे अतीत
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