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अथ नवमाल्लासः
प्रत्यक्षमप्यमी लोकाः प्रेक्ष्य पापविजृम्भितम् । मूढाः किं न विरज्यन्ते प्रथिता इव दुग्रहात् ॥ १ वधेन प्राणिनां मद्यपानेनानृतजल्पनैः । चौर्यैः पिशुनभावैः स्यात्पातकं श्वभ्रपातकम् ॥२ परवञ्चनमारम्भपरिग्रहकदाग्रहैः । परदाराभिसङ्गैश्च पापं स्यात्तापवर्धनम् ॥ ३ अभक्ष्यैविकथालापैः सन्मार्गप्ररूपणैः । अनात्मयन्त्रणैश्चापि स्यादेनस्तेन तस्यजेत् ॥४ लेश्याभिः कृष्णकापोतनीलाभिश्चैव चिन्तनैः । ध्यानाभ्यामार्तरौद्राभ्यां दुःखकृत्कल्मषं भवेत् ॥५ क्रोधो विजितदावाग्निः स्वस्यान्यस्य च घातकः । दुर्गतेः कारणं क्रोधस्तस्माद्वय विवेकिभिः ||६ कुल - जातितपो-रूप-बल-लाभ श्रुत- श्रियाम् । मदात्प्राप्नोति तान्येव प्राणी होनानि मूढधीः ॥७ दौर्भाग्यजननी माया माया दुर्गतिर्वाधनी । नृणां स्त्रीत्वप्रदा माया ज्ञानिभिस्त्यज्यते ततः ॥८ कज्जलेन सितं वासो दुग्धं शुक्लेन यादृशम् । क्रियते गुणसंघातो युक्तो लोभेन तादृशः ॥९ भवे कारागृहनिभे कषाया कामिका इव । जीवः किन्त्वेषु जाग्रत्सु मोक्षमान्योऽतिबालिशः ॥ १० शौयं गाम्भीर्य मौदार्य ध्यानमध्ययनं तपः । सकलं सफलं पुंसा स्याच्चेद्विषय-निग्रहः ॥११ पापात्पङ्गुः ऋणी पापात्कुष्टी पापाज्जनो भवेत् । पापादस्फुटवाक् पापान्मुकः पापाच्च निर्धनः ॥ १२
ये संसारी मूढ लोक पापके फल-विस्तारको प्रत्यक्ष देखकर भी खोटे ग्रहसे ग्रसित हुए के समान पापसे क्यों विरक्त नहीं होते हैं ? ( यह आश्चर्य है ) ||१|| प्राणियोंका घात करनेसे, मदिरापानसे, असत्य बोलनेसे, चोरी करनेसे चुगली और काम-कथारूप पैशुन्यभावसे नरकमें ले जानेवाला महापाप होता है ||२|| दूसरोंको ठगनेसे, आरम्भ, परिग्रह और दुराग्रहसे तथा परस्त्री के साथ संगम करनेसे सन्तापको बढ़ानेवाला पाप होता है ||३|| अभक्ष्य भक्षण करनेसे, विकथाओं के कहनेसे, असत् मार्गके उपदेश देनेसे और दूसरोंको यंत्रणा देनेसे भी पापका संचय होता है, अतः उक्त सर्व कार्योंको छोड़ना चाहिए ॥ ४॥ कृष्ण, नील और कापोत लेश्यारूप परिणति से, तद्रूप चिन्तन करनेसे तथा आर्त और रौद्र ध्यानसे दुःखोंको उत्पन्न करनेवाला पाप-संचय होता है ||५||
क्रोध दावानलको भी जीतने वाला होता है, तथा अपने और परके घातका करने वाला है । क्रोध दुर्गतिका कारण है, इसलिए विवेकी जनोंको क्रोध छोड़ना चाहिए || ६ || कुल, जाति, तप, रूप. बल, लाभ, शास्त्र - ज्ञान और धनादि लक्ष्मोके मदसे मूढ बुद्धि प्राणी इन्हीं कुल, जाति आदिकी हीनताको प्राप्त होता है ||७|| माया दौर्भाग्यकी जननी है, माया दुर्गतिकी बढानेवाली है और माया मनुष्यों को भी स्त्रीपना देती है, इसलिए ज्ञानीजन मायाका परित्याग करते हैं | दूधके समान श्वेत वस्त्र जैसे काजलसे काला हो जाता है, उसी प्रकार लोभसे युक्त गुणोंका समूह मलिन कर दिया जाता है ||९|| कारागार ( जेलखाना ) के सदृश इस संसार में कषाय कारागार के स्वामी ( जेलर ) हैं । किन्तु इन कषायोंके जाग्रत रहते हुए यह अति मूढ़ जीव अपना मोक्ष मानता है, अर्थात् संसारसे छुटकारा समझता है ॥१०॥
यदि मनुष्योंके इन्द्रिय-विषयोंका निग्रह हो, तो शूरता, गम्भीरता, उदारता, ध्यान, शास्त्रअध्ययन और तप ये सर्व सफल हैं ||११|| पापसे जीव पंगु होता है, पापसे ऋणी (कर्जदार) होता
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