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कुन्दकुन्द श्रावकाचार दूतो वाचि कविः स्मारो गोतकारी स्वरस्वरः । गृहाश्रमगतो योगी महोगकरास्त्रयः ॥४३१ मानिदोषोऽजनश्लाघा गुणिनां गुणनिन्दकः । राजाधवर्णवादी च सखोज्नर्थस्य भाजनम् ॥४३२ गृहदुश्चरितं मन्त्रं वित्तायुमर्मवचनम् । अपमानं स्वधर्म च गोपयेवष्ट सर्वदा ।।४३३
इत्येवं कथितमशेषजन्मभाजा-माजन्म प्रतिपदमत्र यविषेयम् । कुर्वन्तः सततमिदं च केऽपि धन्याः साफल्यं विवषति जन्म ते निजस्य ॥४३४ इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामिविरचिते श्रावकाचारे जन्मचर्यायां
विशेषोपदेशो नामाष्टमोल्लासः।
और नवों रसोंसे अपरिचित होनेपर भो अपनेको सर्वरसोंका ज्ञाता माननेवाला ये तीनों जातिके पुरुष कपिकच्छु (केवाचकी फली) के समान जानना चाहिए ॥४३०॥
वचन बोलनेमें अपनेको कुशल दूत, कवि और स्मरण-शक्ति-सम्पन्न समझनेवाला, गायकके स्वरमें स्वर मिलाकरके अपनेको गीतकार माननेवाला, तथा गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी अपनका योगी कहनेवाला, ये तीनों महान् उद्वेगकारक जानना चाहिए ॥४३१॥ ज्ञानी पुरुषोंमें दोष देखनेवाला. दुर्जनोंकी प्रशंसा करनेवाला, गुणी जनोंके गुणोंकी निन्दा करनेवाला और राजा आदि महापुरुषोंका अवर्णवाद करनेवाला, ये सभी पुरुष शीघ्र ही अनर्थके पात्र होते हैं ॥४३२।। अपने घरके दुश्चरित्रको, मंत्रको, धनको, अपनी आयुको, मर्मको, वंचना करनेवाले कार्यको, अपमानको और अपने धर्मको इन आठ बातोंको सदा गुप्त रखे । अर्थात् सबके सामने प्रकट नहीं करे ॥४३३॥
इस प्रकार समस्त प्राणियोंके जन्मसे लेकर जीवनमें प्रतिपदपर करनेके योग्य जो कार्य हैं, उन सबको मैंने कहा। जो कोई भी पुरुष निरन्तर इन कार्योंको करते हैं, वे धन्य हैं और वे अपने जन्मको सफल करते हैं ॥४३४॥
इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्दस्वामि-विरचित श्रावकाचारके अन्तर्गत जन्मचर्या में विशेष कार्योंका उपदेश करनेवाला
अष्टम उल्लास समाप्त हुआ।
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