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कुन्दकुन्द श्रावकाचार
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मृत्तिकाकाष्ठपाषाणपात्रेऽश्नीयात् रजस्वला | देवस्थाने सकृद्-गोष्ठरजःषु न रजः क्षिपेत् ॥ १७७ स्नात्वैकान्ते चतुर्थेऽह्नि वर्जयेदन्यदर्शनम् । सुशृङ्गारा स्वभर्तारं सेवेत कृतमङ्गला ॥१७८ निशा षोडश नारीणामृतुः स्यात्तासु चादिमाः ।
तिस्रः सर्वैरपि त्याज्याः प्रोक्ता तुर्यापि केनचित् ॥ १७९
उक्तं च
चतुर्थ्यां जायते पुत्रः स्वल्पायुर्गुणर्वाजतः । विद्याचारपरिभ्रष्टो दरिद्रः क्लेशभाजनः ॥१८० समायां निशि पुत्रः स्याद् विषमायां तु पुत्रिका । स्त्रीणामृतुरते कार्यं न च दन्तनखक्षतम् ॥१८१ दिवा कार्यो न सम्भोगः सुधिया पुत्रमिच्छता । दिवासम्भोगतः पुत्रो जायते ह्यबलांशकः ॥ १८२ पुत्रार्थमेव सम्भोगः शिष्टाचारवतां मतः । ऋतुस्नाता पवित्राङ्गी गम्या नारी नरोत्तमैः ॥१८३ अन्यो व्यसनिनां कामः स च धर्मार्थबाधकः । सद्भिः पुनः स्त्रियः सेव्याः परस्परमबाधया ॥ १८४ ऋतावेव ध्रुवं सेव्या नारी स्यान्नैथुनोचिता । सेव्या पुत्रार्थमापञ्चपञ्चाशद्वत्सरं पुनः १८५ बलक्षयो भवेद्ध्वं वर्षेभ्यः पञ्चसप्ततेः । स्त्री-पुम्सयोनं च युक्तं तन्मैथुनं तदनन्तरम् ॥१८६ स्त्रियां षोडशवर्षायां पञ्चविंशतिहायनः । बुद्धिमानुद्यमं कुर्याद विशिष्टसुतकाम्यया ॥ १८७
स्त्रीको छोड़ना चाहिए ।।१७५-१७६ ॥ रजस्वला स्त्रीको मिट्टी, काष्ठ या पाषाणके पात्र में भोजन करना चाहिए, देवस्थानमें, मल-मूत्र विसर्जनके स्थानपर, गायोंके बैठनेके स्थानपर और धूलिपर अपना रज-रक्त नहीं फेंकना चाहिए। चौथे दिन एकान्त में स्नान करके अन्य पुरुषका दर्शन न करे किन्तु उत्तम शृङ्गार करके मांगलिक कार्यकर अपने पतिका सेवन करे || १७५-१७८॥ स्त्रियोंके रजःस्रावसे लगाकर सोलह रात्रियां ऋतुकाल कहलाता है । उनमें आदिकी तीन रात्रियाँ तो सभी जनोंके त्याज्य हैं । कोई-कोई विद्वान्ने चौथी रात्रि भी त्यागने के योग्य कही है || १७९ || कहा भी है- ऋतुमती स्त्रीके साथ चौथो रात्रिमें समागम करनेसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र अत्यल्प आयुका धारक, गुणोंसे रहित, विद्या एवं आचारसे भ्रष्ट दरिद्र और दुखोंको भोगने वाला होता है || १८०||
ऋतु धर्म होनेके पश्चात् चौथो, छठी आदि सम संख्यावाली रात्रिमें समागम करनेसे पुत्र उत्पन्न होता है और पाँचवीं, सातवीं आदि विषम संख्यावाली रात्रिमें समागम करनेसे पुत्री उत्पन्न होती है । स्त्रियोंके ऋतुकालमें दन्तक्षत और नखक्षत नहीं करना चाहिए || १८१ ॥ पुत्रके उत्पन्न करनेकी इच्छावाले बुद्धिमान् पुरुषको दिनमें स्त्री-संभोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि दिन में संभोग करनेसे निर्बल वीर्यका धारक पुत्र पैदा होता है || १८२ ॥ शिष्ट आचारवाले मनुष्योंका स्त्री-संभोग पुत्रके लिए ही माना गया है । उत्तम पुरुषों को ऋतुकालमें स्नान की हुई पवित्र शरीरवाली नारी ही गमन करनेके योग्य होती है ॥१८३॥
व्यसनी पुरुषोंका अन्यकालमें काम सेवन धर्म और अर्थका बाधक होता है । इसलिए सत्पुरुषोंको परस्परकी बाधा रहित स्त्रियोंका सेवन करना चाहिए ॥ १८४ ॥ | मैथुन सेवनके उचित नारी ऋतुकालमें ही निश्चयसे सेवन करनेके योग्य होती है । पचवन वर्ष तक की आयुवाली स्त्री पुत्रोत्पत्तिके लिए सेवन करनेके योग्य है || १८५ || इससे आगे पचहत्तर वर्ष तक की आयुवाली स्त्रीका सेवन करनेसे पुरुषके बलका क्षय होता है । इसलिए पचवन वर्षके अनन्तर स्त्री और पुरुषका मैथुन सेवन करना युक्त नहीं है || १८६ || सोलह वर्षकी स्त्रीमें पच्चीस वर्षका बुद्धि
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