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कुन्दकुन्द श्रावकाचार सन्तु शास्त्राणि सर्वाणि सरहस्यानि दूरतः। एकमप्यक्षरं सम्यक् शिक्षितं नैव निष्फलम् ॥३०५
इति षड्दर्शन-विचार-क्रमः । अब सविवेक-यमनक्रमःविमर्शपूर्वकं स्वास्थ्यं स्थापकं हेतुसंयुतम् । स्तोकं कार्यकरं स्वादु निगवं निपुणं धदेत् ॥३०६ उक्तः सप्रतिभो ब्रूयात्सभायां सूनृतं वचः । अनुल्लध्यमदैन्यं च सार्थकं हृदयङ्गमम् ॥३०७ उदारं विकथोन्मुक्तं गम्भीरमुचितं स्थिरम् । अपशब्दोज्झितं लोकमर्मस्पशि सदा वदेत् ॥३०८ सम्बद्धशुद्धसंस्कारं सत्यानृतमनाहतम् । स्पष्टार्थमाद्वोपेतमहसंश्च वदेद वचः ॥३०९ प्रस्तावेऽपि कुलीनानां हसनं स्फुरदोष्ठकम् । अट्टहासोऽतिहासश्च सर्वथाऽनुचितं पुनः ॥३१०
कस्यापि चापतो नैव प्रकाश्याः स्वगुणाः स्वयम् ।
अतुच्छत्वेन तुच्छोऽपि वाच्यः परगुणः पुनः ॥३११ न गर्वः सर्वदा कार्यों भट्टादीनां प्रशंसया । व्युत्पन्नश्लाध्यया कार्यः स्वगुणानां तु निश्चयः ॥३१२ अवधार्या विशेषोक्तिः पर-वाक्येषु कोविदः । नोचेन स्वं प्रति प्रोक्तं यत्तु नानुवदेत्सुधीः ॥३१३
जाता है ॥३०४॥ सर्व ही शास्त्र दूरसे रहस्य युक्त भले ही प्रतीत हों। किन्तु सम्यक् प्रकारसे सीखा गया एक भी अक्षर निष्फल नहीं होता है ।।३०५।।
इस प्रकार छहों दर्शनोंका विचार किया। अब विवेकके साथ वचन बोलनेके क्रमको कहते हैं
विचार-पूर्वक स्वस्थता-युक्त, वस्तु तत्त्वके स्थापक, हेतु-संयुक्त, कार्यको सिद्ध करनेवाले परिमित, मधुर और गर्व-रहित निपुण (चातुर्ययुक्त) वचन बोलना चाहिए ॥३०६॥ किसीके द्वारा कहे या पूछे जाने पर सभामें सत्य वचन प्रतिभाशाली पुरुषको बोलना चाहिए। जो वचन बोले जावें, वे किसीके द्वारा उल्लंघन न किये जा सकें, अर्थात् अकाट्य हों, दीनता-रहित हों, सार्थक हों और हृदयको स्पर्श करनेवाले हों ।।३०७।। बुद्धिमान् पुरुषको उदार, विकथासे रहित, गंभीर, योग्य, स्थिर, अपशब्दोंसे रहित और लोगोंके मर्मका स्पर्श करनेवाले वचन सदा बोलना चाहिए ॥३०८॥ पूर्वापर सम्बन्धसे युक्त, शुद्ध संस्कारवाले, सत्य, असत्यतासे रहित, दूसरेको आघात नहीं पहुंचानेवाले, स्पष्ट रूपसे अर्थको व्यक्त करनेवाले, मृदुता-युक्त और निर्दोष वचन विना हंसते हुए बोलना चाहिए ॥३०९॥ प्रस्ताव ( अवसर ) के समय भी कुलोन पुरुषोंके आगे हंसना, होठोंको फड़काते हुए अट्टहास करना और दूसरोंका उपहास करना सर्वथा अनुचित है ॥३१०॥ किसी भी पुरुषकै आगे अपने गुण स्वयं नहीं प्रकाशित करना चाहिए। किन्तु तुच्छ भी पुरुषको तुच्छतासे रहित होकर दूसरोंके गुण कहना चाहिए ॥३१॥
भट्ट ( भाट-चारण ) आदि पुरुषोंको प्रशंसासे गवं कभी भी नहीं करना चाहिए। किन्तु व्युत्पन्न ( विज्ञ ) पुरुषोंके द्वारा की गई प्रशंसासे अपने गुणोंका निश्चय करना चाहिए ॥३१२।। विद्वज्जनोंको दूसरोंके वाक्योंमें विशेष रूपसे कही गई बातको हृदयमें धारण करना चाहिए। नीच पुरुषके द्वारा अपने प्रति जो बात कही गई हो, उसे बुद्धिमान् पुरुष उसी शब्दोंमें उत्तर न
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