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कुन्दकुन्द धावकाचार
छेदे श्रावो न रक्तस्य न रेखा यष्टिताडने । नाघस्तात्कुचयोः स्पन्दोऽवर्शनं दर्शनकेऽपि च ॥ १७८ वशनाकार बारित्वं सुव्यक्तं वर्णास्पष्टता । निःश्वासस्य च शीतत्वं कन्धराऽप्यतिभङ्गरा ॥ १७९ शोणिते पर्यास न्यस्ते विस्तारस्तैलबिन्दुवत् । ओष्ठसम्पुटयोमुद्राभेवो मेलितयोरपि ॥१८० जिह्वाविलोकनं नैव न नासाग्रनिरीक्षणम् । आत्मोयो विषयः कश्चिदिन्द्रियाणां न गोचरः ॥ १८१ मुखे श्वासो न नासाया विकासी नेत्रवक्षसोः । चन्द्रे सूर्यभ्रमः सूर्ये चन्द्रोऽयमिति च भ्रमः ॥ १८२ कक्षायां रसनायां च श्रवणद्वितयेऽपि च । ध्वाङ्क्षपादोपमं नीलं यदि बोत्पद्यते स्फुटम् ॥१८३ दर्पणे सलिले वापि स्वमुखस्यानिरीक्षणम् । न दृशोः पुत्रिका स्पष्टा पुरस्थैरवलोक्यते ॥ १८४ शोफः कुक्षोर्नखानां च मालिन्यं सहसा तथा । स्वेदः शूलं गले भक्ष्यप्रवेश्यो न मनागपि ॥ १८५ न कम्पः पुलको दन्तघर्षश्चाधरपीडनम् । सीत्कारस्तापजडता कूजनं च मुहुर्मुहुः ॥ १८६ नेत्रयोः शुक्लयोरह्नि रक्तयोः सायमेव हि । नीलयोनिशि मृत्युः स्यात्तस्य दष्टस्य निश्चितम् ॥ १८७ दष्टस्य देहे शीताम्बुधारासिक्ते भवेद्यदि । रोमाञ्चः कम्पनाद्यं वा तदा वष्टोऽनुगृह्यते ॥१८८ यो हस्तनखनिर्मुक्तः पयो बिन्दुभिराहतैः । निमीलयति नेत्रे स्वे यमस्तस्मिंश्च सोद्यमः ॥ १८९ यस्य पाणिनखासक्तमांसेऽन्यनखपीडिते । जायते वेदना तस्य नान्तको भजतेऽन्तके ॥ १९० इष्टिकाचितिवल्मीकाद्विभक्ते च सरित्तटे । वृक्षकुखे श्मशाने च जीर्णे शालागृहान्तरे ॥ १९१
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लगे, जंभाई आने लगे, छाया प्राणोंका अंग बन गई हो, शरीरके छेदनेपर रक्त स्त्राव न हो, लकड़ीसे मारनेपर रेखा न पड़े, स्तनोंके नीचे स्पन्दन न हो, देखनेपर भी स्पष्ट न दिखे, साँपके दांतोंका आकार स्पष्ट दिखने लगे, निःश्वासमें शीतलता आने लगे, कन्धरा भी अधिक भंगुर (टेड़ी) हो जावे, रक्तके पानीमें डालनेपर तेलकी बूंदके समान वह फैलने लगे, ओष्ठ-सम्पुटके मिलानेपर भी मुद्रा-भेद हो अर्थात् वे खुल जावें, जीभको न देख सके, नासिकाका अग्रभाग भी न दिखे; इन्द्रियोंका अपना कोई भी विषय गोचर ( प्रतीत न हो, मुखमें श्वास प्रतीत हो, किन्तु नासिकाकी प्रतीत न हो, नेत्रोंका और वक्षः स्थलका विकास हो, चन्द्रमें सूर्यका भ्रम हो और सूर्यमें यह चन्द्र है, ऐसा भ्रम होने लगे, कांखमें, जीभमें और दोनोंमें भी काकके पाद-समान नीलापन यदि स्पष्टरूपसे उत्पन्न हो जाये, दर्पणमें अथवा पानीमें देखनेपर भी अपना मुख न दिखे, नेत्रों की पुतलियां, सामने बैठे हुए पुरुषोंको स्पष्ट न दिखे, कुक्षिमें शोफ ( सूजन), आजावे, नखोंमें सहसा मलिनता आजावे, प्रस्वेद-शूल हो जावे, गलेमें खानेयोग्य वस्तुका जरा-सा भी प्रवेश न हो सके, शरीरमें न कम्पन हो, न रोमांच हो, न दन्तघर्षण नअर-पीड़न हो, सीत्कार, ताप - जड़ता, वार वार कूजन होने लगे, शुक्ल नेत्रोंमें दिनके समय रक्तपना, सायंकालमें और रात्रिमें नीलपना आजावे, तो उस सर्प-दष्ट पुरुषकी मृत्यु होगी, ऐसा निश्चित है ।। १७५-१८७ ।।
सर्प-दष्ट पुरुषके देह में शीतल जलकी धाराके सिंचन करनेपर यदि रोमांच या कम्पनादि हो तो उस दष्ट पुरुषका अनुग्रह किया जा सकता है || १८८ || जो सर्प-दष्ट पुरुष हाथके नखोंसे छोड़े गये जल-बिन्दुओंसे आघात किये जानेपर अपने नेत्रोंको बन्द कर लेता है, उसपर यमराज उद्यमशील है, अर्थात् वह बचाया नहीं जा सकता ॥ १८९ || जिस सर्प-दष्ट व्यक्तिके हाथके नखसे संलग्न मांसमें अन्य नखसे पीड़ित करनेपर यदि वेदना होती है तो यमराज उसके समीप नहीं आसकता है ॥ १९० ॥ ईटोके ढेर में चैत्यस्थानमें और बांभीसे विभक्त नदी-तटपर, वृक्ष-कुञ्जमें, श्मशानमें, जीर्णशाला में, जीर्णघरके भीतर पत्थरोंके संचयवाले स्थानपर, दिव्य देवताके आयतन म
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