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'वर्जयेदहंतः पृष्ठि दृष्टि चण्डोश-सूर्ययोः । वामाङ्ग बासुदेवस्य दक्षिणं बह्मणः पुनः ॥९३
अथ गृहवृद्धिकमःन दोषो यत्र वेधादि न च यत्राखिलं दलम् । बहद्वाराणि नो यत्र यत्रचनास्य संशयः ॥९४ पूज्यते देवता यत्र यत्राभ्युक्षणमादरात् । रक्ता यवनिका यत्र यत्र सन्मार्जनादिकम् ।।९५ यत्र ज्येष्ठकनिष्ठादिव्यवस्था सुप्रतिष्ठिता। भानवीया विशन्त्यन्त नवो नैव यत्र तु ॥९६ बीपको दीप्यते पत्र पालनं यत्र रोगिणाम् । श्रान्तसंवाहना यत्र तत्र स्यात्कमला गृहे ॥९७
(चतुभिः कलापकम् ) चन्दनादर्शहेमोक्षव्यजनासनवाजिनः । शङ्खाधुदधिपत्राणि चैतानि गृहवृद्धये ॥९८ दद्यात्सोख्यामृतं वाचमम्युक्षणमथासनम् । शक्त्या भोजनताम्बूले शत्रावपि गृहागते ॥९९. मूर्खधार्मिकपाखण्डिपतितस्तेनरोगिणाम् । क्रोधनान्त्यजहप्तानां गुरुतुल्यकवैरिणाम् ॥१०० स्वामिवञ्चकलुब्धानां ऋषिस्त्रीबालघातिनाम् । इच्छन्नात्महितं धोमान् प्रकृता सङ्गतिं त्यजेत् ॥१०१
आदिकी छाया सदा ही दुःखको देनेवाली होती है ॥१२॥ अरहन्तदेवकी ओर पीठको, महेश और सूर्यकी ओर दृष्टिको, वासुदेवकी ओर वाम अंगको और ब्रह्माकी ओर दक्षिण अंगको नहीं करना चाहिए ॥९३|
अब घरको वृद्धिका क्रम कहते हैं-जिस घरमें वेध (ऊंचाई आदि) का कोई दोष नहीं है, और जहाँ पर समस्त प्रकारके कोई दल नहीं हैं, जिस घरमें बहुत द्वार नहीं है और न जहाँ पर शत्रुके आने आदिका कोई संशय है, जहाँपर देवता पूजे जाते हैं, जहाँ पर आदरसे अभ्युक्षण (अतिथि स्वागत) होता है जहाँ पर लाल वर्णका पड़दा लगा हुआ है, जहाँपर भलीभांतिसे प्रमार्जन आदि होता है, जहाँ पर बड़े और छोटे भाई आदिकी व्यवस्था भले प्रकारसे प्रतिष्ठित है, जहाँ पर सूर्यको किरणें भीतर प्रवेश नहीं करती है, जहाँ पर दीपक सदा प्रदोप्त रहता है, जहाँ पर रोगी पुरुषोंका पालन-पोषण होता है, और जहाँ पर थके हुए मनुष्योंकी संवाहना (पगचम्पी आदि वैयावृत्त्य) होती है, उस घरमें कमला (लक्ष्मी) निवास करती है ।।९४-९७॥
चन्दन, दर्पण, हेम, उक्ष ( वृषभ ) व्यंजन (पंखा ) आसन वाजी (अश्व), शंख और समुद्रोत्पन्न मूंगा आदि ये सब वस्तुएँ घरको वृद्धिके लिए होती हैं ॥९८॥ शत्रुके भी घरमें आनेपर सुखकारक अमृतमयी वाणी बोले, उसके स्वागतार्थ उठे और योग्य आसन प्रदान करे। तथा अपनी शक्तिके अनुसार भोजन करावे और ताम्बूल-प्रदान करे ॥९९॥ मूर्ख अधार्मिक, पाखण्डी, पतित, चोर, रोगी पुरुष, क्रोधी, अन्त्यज (चाण्डाल) मदोन्मत्त, गुरु-तुल्य श्रेष्ठ पुरुषोंके वैरी, स्वामिवंचक, लुब्धक, तथा ऋषि, स्त्री और बालकोंके घातक पुरुषोंकी संगतिको आत्म-हित चाहनेवाला बुद्धिमान् पुरुष छोड़े ।।१००-१०१॥
१. बजिज्ञई जिणपिट्ठी रवि-ईसरदिठि विष्वामभुवा ।
सम्वत्य असुह चंडी बंभाणं उदिसि पयह ॥१४१॥ अरिहंतदिट्टि दाहिण हरपट्टी बामएसु कल्लाणं । . विवरीए बहुदुक्तं परं न मम्मतरे दोसो ॥४३॥ (वास्तुसार, गृहप्रकरण)
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