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कुन्दकुन्द श्रावकाचार
'अन्यायश्च दुराचारः पाखण्डाधिकता जने । सार्वमाकस्मिकं जातं वैकृतं देशनाशनम् ॥१० सम्प्राप्येन्द्रधनुर्दुष्टं वह्निः सूर्यस्य सम्मुखम् । रात्रौ दुष्टं सदा दोषकाले वर्णव्यवस्थया ॥११ सितं रक्तं पीतकृष्णं सुरेन्द्रस्य शरासनम् । भवेद विप्रादिवर्णानां चतुर्णा नाशनं क्रमात ॥१२ अकाले पुष्पिता वृक्षाः फलिताश्चान्यभूभुजः । अन्योन्यं महती प्राज्यं दुनिमित्तफलं वदेत् ॥१३ अश्वत्थोदुम्बरवटप्लक्षाः पुनरकालतः । विप्रक्षत्रियधिशूद्रवर्णानां क्रमतो भयम् ॥१४ "वृक्षे पत्रे फले पुष्पे वृक्षं पत्रं फलं दलम् । जायते चेत्तदालोके दुभिक्षादिमहा भयम् ॥१५ गोध्वनिनिशि सर्वत्र कलिर्वा दर्दुराः शिखी । श्वेतकाकश्च गृद्धादिभ्रमणं देशनाशनम् ॥१६ अपूज्यपूजाः पूज्यानामपूजा करणोमदः । शृगालोऽह्निरुवन्नाशे तित्तिरश्च जाये ॥१७ खरस्य रसतश्चापि समकालं यदा रसेत् । अन्यो वा नखरी जीवो दुभिक्षादि तदा भवेत् ॥१८ अन्यजातेरन्यजातेर्भाषणं प्रसवे शिशुः । मैथुनं च खरीसूतिदर्शनं चापि भीतिदम् ॥१९ अकस्मात् विकृत हो जावें, वहाँपर देशका नाश होता है ॥९-१०॥ इन्द्र-धनुष दोष-युक्त दिखे, अग्नि सूर्यके सम्मुख हो, रात्रिमें और प्रदोष कालमें सदा दुष्ट संचार हो तो वर्ण-व्यवस्थासे उपद्रव होता है ।।११।। यदि सुरेन्द्रका शरासन अर्थात् इन्द्र-धनुष श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्णका दिखे तो क्रमसे ब्राह्मण आदि चारों वर्णोंका नाश होता है। अर्थात् इन्द्रधनुष श्वेत वर्ण का दिखे तो ब्राह्मणोंका, रक्तवर्णका दिखे तो क्षत्रियोंका, पीतवर्णका दिखे तो वैश्योंका और कृष्ण वर्णका दिखे तो शूद्रोंका विनाश होता है ।।१२।। यदि वृक्ष अकालमें फूलें और फलें तो अन्य राजाके साथ महान् युद्ध होता है, ऐसा उक्त दुनिमित्तका फल कहना चाहिए ।।१३।। पीपल, उदुम्बर, वट और प्लक्ष (पिलखन) वृक्ष यदि अकालमें फूल और फलें तो क्रमसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णके लोगोंके भय होता है ।।१४।। यदि वृक्षमें, पत्रमें, फलमें और पुष्पमें क्रमसे अन्य वृक्ष, अन्य पत्र, अन्य फल और अन्य पुष्प उत्पन्न हो, तो लोकमें दुभिक्ष आदिका महाभय होता है ॥१५॥ यदि रात्रिमें गाय-बैलोंका रंभाना चिल्लाना हो, अथवा परस्पर कलह हो, तथा प्रचुरतासे मेंढक, मयूर, श्वेत काक, और गीध आदि पक्षियोंका परिभ्रमण हो तो देशका विनाश होता है ॥१६॥
यदि अपूज्य लोगोंकी पूजा होने लगे और पूज्य पुरुषोंकी पूजा न हो, हथिनीके गण्डस्थलोंसे मद झरने लगे, दिनमें शृगाल रोवें-चिल्लावें और तीतरोंका विनाश हों तो जगत्में भय उत्पन्न होता है ॥१७॥ गर्दभके रेंकनेके समकालमें ही अन्य गर्दभ रेंकने लगे, अथवा अन्य नाखनी पंजेवाले जोव चिल्लाने लगे, तब दुर्भिक्ष आदि होता है ॥१८॥ अन्य जातिके पशु-पक्षीका अन्य जातिके पशु-पक्षीके साथ बोलना, अन्य जातिसे प्रसवमें शिशु होना, अन्य जातिके पशु-पक्षीके साथ अन्य जातिके पशु-पक्षीका मैथुन करना और गर्दभकी प्रसूतिका देखना भी भय-प्रद होता है ।।१९।।
१. वर्षप्रबोध १, ५। २. वर्षप्रबोध १, ७। ३. वर्षप्रबोध १, ८।। ४. क्षत्रियाः पुष्पितेऽश्वत्थे ब्राह्मणाश्चाप्युदुम्बरे ।
वैश्याः प्लक्षेऽथ पीडयन्ते न्यग्रोधे शूद्रदस्यवः ।। (भद्र बा० १४, ५७) वर्ष प्रबोध १, ९ । ५. वर्षप्रबोध १. १०। ६. वर्षप्रबोध १, ११ ।
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