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अथ पंचमोल्लासः
दीपो दक्षिणदिग्वर्ती निःप्रकम्पोऽतिभासुरः । आयनोदितमूत्तिश्च निःशब्दो रुचिरस्तथा ॥१ चञ्चत्काञ्चनसङ्काशप्रभामण्डलमण्डितः । गृहालोकाय माङ्गल्यः कर्तव्यो रजनीमुखे ॥२ प्रस्फुलिङ्गोऽल्पमूश्चि वामावर्तस्तनुप्रभः । वायत्कटाद्यभावेऽपि विध्यायेत्तैलवजितम् ॥३ विकीर्णाचिः सशब्दश्च प्रदीपो मन्दिरे स्थितः । पुरुषाणामनिष्टानि प्रकाशयति निश्चितम् ॥४ रात्रौ न देवतापूजां स्नानदानाशनानि च । न वा खदिरताम्बूलं कुर्यान्मन्त्रं च नो सुधीः ॥५ खट्वां जीवाकुलां ह्रस्वां भग्नकाष्ठां मलोमसाम् । प्रतिपादान्वितां वह्निदारुजातां च सन्त्यजेत् ॥६ शयनासनयोः काष्ठमाचतुर्योगतः शुभम् । पञ्चादिकाष्ठयोगे तु नाशः स्वस्य कुलस्य च ॥७ पूज्योर्ध्वस्थो न नााज्रिनग्नोत्तरापरा शिरः । नानुवंशं न पादान्तं नागदन्तः स्वपेत्पुमान् ॥८ देवानां धाम्नि वल्मीके भूरुहाणां तलेऽपि च । तथा प्रेतवने चैव सुप्यान्नापि विदिक-शिरः ॥९ वपुः शीलं कुलं वित्तं वयो विद्याऽऽसनं तथा। एतानि यस्य विद्यन्ते तस्मै देया निजा सुता ॥१० मूर्ख-निर्धन-दूरस्थ-शूर-मोक्षाभिलाषिणाम् । त्रिगुणाधिकवर्षाणां चापि देया न कन्यका ॥११
रात्रिके समय जलाया जानेवाला दीपक दक्षिण-दिग्वर्ती हो, प्रकम्प-रहित हो और प्रकाशवान हो, प्रातःकाल उदित होते हुए सूर्यके समान मूर्तिवाला हो, शब्द-रहित और कान्तिवाला हो, तथा चमकते हुए सुवर्णके सदृश प्रभा-मंडलसे युक्त हो। ऐसा मांगलिक दीपक रात्रि-प्रारम्भ होनेके समय गृहके प्रकाशके लिए जलाना चाहिए ॥१॥ जिसमेंसे स्फुलिंग निकल रहे हों, अल्प मूर्तिवाला हो, वाम आवर्त-युक्त हो, अल्प प्रभावाला हो, वायुको उत्कटता आदिके अभावमें भी बुझ जाता हो, तेलसे रहित हो, जिसकी ज्योति विखर रही हो, और चट-चट आदि शब्दको कर रहा हो, ऐसा भवनमें स्थित दीपक निश्चयरूपसे पुरुषोंके अनिष्टोंको प्रकट करता है ॥३-४।।
बुद्धिमान् पुरुष रात्रिमें न देवताओंकी पूजा करे, न स्नान, दान और भोजन ही करे, न कत्था-ताम्बूलका भक्षण करे और न मंत्रको ही सिद्ध करे ॥५।। जो खटमल आदि जीवोंसे व्याप्त हो, छोटी हो, जिसके काठ टूटे हुए हों, मलिनता युक्त हो, जिसका प्रत्येक पाया हलन-चलनसे युक्त हो, और जो जली हुई लकड़ीसे बनाई गई हो, ऐसी खाटका परित्याग करे ॥६।। शय्या और आसनका काष्ठ चारके संयोगसे बना हुआ शुभ हैं । पाँच आदि काष्ठोंके संयोग से बना
पर वह अपना और कलका नाश करता है॥७॥ पूज्य परुषोंसे ऊँचे पलंग आदिपर न सोवे, गीले पैरोंसे भी नहीं सोवे, नंगा न सोवे, उत्तर और पश्चिम दिशाको ओर शिर करके न न सोवे, ? वांसकी बनी खाट पर नहीं सोवे, किसी व्यक्ति व्यक्तिके पैरोंके अन्तमें नहीं सोवे और न पान आदिको दाँतोंमें दबाकर पुरुषको सोना चाहिए ॥८॥ देवोंके मन्दिरमें नहीं सोवे, बल्मीक (बांभी) के ऊपर, वृक्षोंके तल-भागमें और श्मशान भूमिमें भी नहीं सोवे, तथा विदिशाओंमें शिर करके भी नहीं सोना चाहिए ॥९॥
__ शरीर, शील, कुल, सम्पत्ति, अवस्था, विद्या तथा आसन ये जिसके विद्यमान हों, उस व्यक्तिके लिए अपनी कन्या देना चाहिए ॥१०॥ मूर्ख, निर्धन, दूरदेशवर्ती, शूरवीर, मुक्ति प्राप्तिके
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