________________
श्रावकाचार-संग्रह
अङ्गुष्ठस्य तले यस्य रेखा काकपदाकृतिः । तस्य स्यात्पश्चिमे भागे विपत्तिः शूलरोगतः ॥७७ विलष्टान्यङ्गुलिमध्यानि द्रव्यसंग्रहहेतवे । तानि चेच्छिद्रयुक्तानि त्यागशीलस्ततो नरः ॥७८ तर्जनी - मध्यमारन्ध्र मध्यमानामिकान्तरे । अनामिका - कनिष्ठान्तच्छिद्रे सति यथाक्रमम् ॥७९ जन्मनः प्रथमे भागे द्वितीयेऽथ तृतीयके । भोजनावसरे दुःखं केऽप्याहुः श्रीमतामपि ॥८० आवर्ता दक्षिणाः शस्ताः साङ्गुष्ठाङ्गुलिपर्वसु । ताम्नस्निग्धोच्छिखोत्तुङ्गपर्वार्धोत्था नखाः शुभाः ॥८१
श्वेतैर्यतित्वमस्याद्यैर्नेस्वं पोतैः सरोगता । पुष्पितेर्दुष्टशीलत्वं क्रौर्य व्याघ्रोपमैर्नखः ॥८२ शुक्त्याभैः श्यामलैः स्थूलैः स्फुटिताग्रैश्च पीतकैः । अद्योत रूक्षवक्रैश्च नखैः पातकिनोऽधमाः ॥ ८३ नखेषु बिन्दवः श्वेताः पाप्योश्चरणयोरपि । आगन्तवः प्रशस्ताः स्युरिति भोजनृपोऽवदत् ॥८४ तर्जन्या दिन भग्नैर्जातमात्रस्य तु क्रमात् । अर्ध त्रिशच्चतुर्थांशाष्टांशाः स्युः सहजायुषः ॥८५ अङ्गुष्ठस्य नखे भग्ने धर्मतीथंरतो नरः । कूर्मोन्नताङ्गुष्ठनखे नरः स्याद् भोगवर्जितः ॥८६
अथ वधूलक्षणम् वधूलक्षणलावण्यकुलजात्याद्यलङ्कृताम् । कन्यकां वृणुयाद् रूपवतीमव्यङ्गविग्रहाम् ॥८७
और अंगुष्ठ-तलके मध्य में अवस्थित सभी रेखाएँ पुत्र सूचक जानना चाहिए ॥ ७६ ॥
अंगूठे तलभाग में जिसकी रेखा काक-पदके आकारवाली होती है उसके जीवनके अन्तिम भागमें शूलरोगसे विपत्ति आती है || ७७ || पुरुषकी अंगुलियोंके मध्यभाग परस्पर मिले हुए हों तो वे धन-संग्रहके कारण होते हैं । और यदि वे छिद्रयुक्त हों तो वह मनुष्य त्याग - मनोवृत्तिवाला होता है ॥७८॥ तर्जनी और मध्यमाका मध्यवर्ती छिद्र, मध्यमा और अनामिका मध्यवर्ती छिद्र, अनामिका और कनिष्ठाका मध्यवर्ती छिद्र यथाक्रमसे जोवनके प्रथम भाग में, द्वितीय भाग में और तृतीय भाग में श्रीमन्त पुरुषोंको भी भोजनके समय दुःखदायक होते हैं, ऐसा कितने ही विद्वान् कहते हैं ||७९-८०।।
अंगूठे और अंगुलियों पर्वोंमें दक्षिण आवर्त प्रशस्त माने जाते हैं । ताम्रवर्णके स्निग्ध और ऊपरकी ओर शिखावाले उत्तुंग पर्वके अर्धभाग में उठे हुए नख शुभ होते हैं ||८१ || श्वेत वर्णवाले नख यतिपनाके, अस्वेत (कृष्ण) वर्णवाले नख निर्धनताके, पीतवर्णवाले नख सरोगिता के, पुष्पित नख दुष्ट शीलताके और व्याघ्रके समान नख क्रूरताके सूचक होते हैं ||८२|| सीपके समान आभावाले, श्याम वर्ण वाले, स्थूल, पीत वर्ण वाले, फटे हुए अग्रभाग वाले, प्रभा-रहित, रूक्ष और वक्र नखोंसे मनुष्य पापी और अधम होते हैं ॥ ८३ ॥ यदि हाथ और पैरोंके नखोंमें श्वेत बिन्दु होते हैं तो वे आगामी कालमें उत्तम फलके सूचक हैं, ऐसा भोजराजाने कहा है || ८४|| तर्जनीको आदि लेकर कनिष्ठा - पर्यन्त भग्न नखोंके द्वारा उत्पन्न होने वाले व्यक्ति मात्रके क्रम से स्वाभाविक आयुका अर्ध भाग, तीसवर्ष प्रमाण वाला तृतीय भाग, चतुर्थ भाग और अष्टम भाग होता है, ऐसा जानना चाहिए ||८५॥ अंगूठेका नख भग्न होनेपर मनुष्य धर्म-सेवन और तीर्थयात्रामें निरत होता है । यदि अंगूठेका नख कच्छप के समान उन्नत हो तो मनुष्य भोगों से रहित होता है ॥८६॥
अब वधू (स्त्री) के लक्षण कहते हैं
जो कन्या वधूके उत्तम लक्षणोंसे, सौन्दर्य से उत्तम कुल और जाति आदिसे अलंकृत हो,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org