________________
२४
श्रावकाचार-संग्रह
घनिष्ठा - ध्रुव- रेवत्यश्विनी - हस्तादिपञ्चकम् । पुष्यपुनर्वसू चैव शुभानि श्वेतवाससि ॥ २३ पुष्यं पुनर्वसू चंव रोहिणी चोत्तरात्रयम् । कौसुम्भे वर्जयेद्वस्त्रे भर्तृधातो भवेद्यतः ॥ २४ रक्तवस्त्रन्त्रवालानां धारणं स्वर्ण-शङ्खयो: । धनिष्ठायां तथाऽश्विन्यां रेवत्यां करपञ्चके ॥ २५ द्विजादेशे विवाहे च स्वामिदत्तं च वाससि । तिथि- वाराक्ष शीतांशुविष्ट्यादीन्न विलोकयेत् ॥ २६ न धार्यमुत्तमैजणं वस्त्रं न च मलीमसम् । विना रक्तोत्पलं रक्तपुष्पं च न कदाचन ॥२७ आकाङ्क्षन्नात्मनो लक्ष्मों वस्त्राणि कुसुमानि च । पादत्राणानि चान्येन विधूतानि न धारयेत् ॥२८ नवभागीकृते वस्त्रे चत्वारस्तत्र कोणकाः । कर्णावतद्वये द्वौ चाञ्चलौ मध्यं तथैककम् ॥ २९ चत्वारो देवता-भागा द्वौ भागौ दैत्यनायको । उभौ तौ मानुषौ भागौ एक भागश्च राक्षसः ॥३० पङ्काञ्जनादिभिर्लिप्तं त्रुटितं मूषकादिभिः । तुन्नितस्फाटिकं दग्धं दृष्ट्वा वस्त्रं विचारयेत् ॥ ३१ उत्तमो दैवते लाभो दानवे रोगसम्भवः । मध्यमो मानुषे लाभो राक्षसे मरणं पुनः ॥३२
छत्रध्वज स्वस्तिकवर्धमान श्रीवत्सकुम्भाम्बुजतोरणाद्यैः ।
छेदाकृतिनं नैऋत भागगापि पुंसां विधत्ते न चिरेण लक्ष्मीः ' ॥३३
गये हैं। लाल वस्त्र धारण करनेमें मंगलवार भी शुभ है। श्वेत वस्त्रको धारण करनेमें घनिष्ठा, ध्रुवसंज्ञक नक्षत्र रेवती, अश्विनी हस्तादि पाँच नक्षत्र (हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा ) पुष्य, और पुनर्वसु ये नक्षत्र शुभ हैं ||२२-२३|| कौसुम्भवर्ण रंग ( हलका ताम्रवर्ण) का वस्त्र धारण करनेमें पुष्य पुनर्वसु, रोहिणी और तीनों उत्तरा नक्षत्र इनका त्याग करे, क्योंकि इन नक्षत्रोंमें कुसुमल रंगका वस्त्र पहरने पर पतिका घात होता है ||२४|| रक्त वस्त्र, प्रवाल ( मूंगा ) स्वर्ण और शंखको धनिष्ठा, अश्विनी रेवती और हस्तादि पांच नक्षत्रोंमें धारण करना चाहिए ||२५|| ब्राह्मणके कहनेपर, विवाहके समय और स्वामीके द्वारा दिये गये वस्त्रके धारण करनेमें तिथि, वार, नक्षत्र, चन्द्र शुद्धि और विष्टि (भद्रा) आदिका विचार नहीं करना चाहिए ||२६||
उत्तम पुरुषोंको जोर्ण और मलिन वस्त्र नहीं धारण करना चाहिए । तथा लालकमलके बिना शेष लालपुष्प भी कभी नहीं धारण करना चाहिए ||२७|| यदि मनुष्य अपने लिए लक्ष्मीको आकांक्षा करे तो दूसरोंके द्वारा धारण किये हुए वस्त्रोंको, पुष्पोंको और पादत्राणों ( जूतों) को नहीं धारण करे ||२८||
नवीन वस्त्रके नौ भाग करें, उसमें चार भाग तो चारों कोणोंके होते है, कोनोंके समोपवाले दो भाग हैं, अंचलवाले दो भाग हैं और एक भाग मध्यवर्ती हाता है ||२९|| इनमेंस कोणोंवाले चार भाग देवताके भाग हैं, कोनोंके समीपवाले दो भाग देत्योंके नायकोंके हैं, अंचलवाले दो भाग मनुष्यके है और मध्यभाग राक्षसका माना जाता है ||३०||
कीचड़, अंजन आदिसे लिप्त वस्त्र, मूषक आदिसे काटा गया वस्त्र, बुनने के स्थानसे फाड़ा गया वस्त्र और जले हुए वस्त्रको देखकर उसके फलका विचार करना चाहिए || ३१ ॥ उपरिवणित भागोंमेंसे देवता-सम्बन्धी भाग उत्तम लाभ-कारक है, दत्य-दानववाला भाग रोग-जनक है, मनुष्य भाग मध्यम लाभ-कारक है और राक्षस भागमें तो मरण होता है ||३२||
छत्र, ध्वजा, स्वस्तिक, वर्धमानक (नन्द्यावर्त) श्रीवत्स, कलश, कमल, और तोरण आदिके
१. भद्रबाहु संहिता, परि० श्लोक १९४, (१० ३९५) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.brg