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कुन्दकुन्द श्रावकाचार
२७ कनिष्ठादि-तलस्पर्श षट्सप्पाष्टौ नव क्रमात् । तर्जन्या दश विज्ञेयास्तदादीनां नखाहतैः ॥५४ एकद्वित्रिचतुर्युक्ता दशा ज्ञेया यथाक्रमम् । हस्तस्य तलसंस्पर्शे पुनः पञ्चदश स्मृताः ॥५५ तले च कनिष्ठानां तु षट्सप्ताष्टनवाधिका: । क्रमशो दश विज्ञेया हस्तसञ्जा-विशारदः ॥५६ तर्जन्यादौ द्वित्रिचतुःपञ्चग्राहे यथाक्रमम् । विशन्त्रिशच्चत्वारिंशत्पञ्चाशत्परिकल्पना ॥५७ . कनिष्ठाद्यगुलितलै: षष्टिसपत्यशीतयः । नवतिश्च क्रमाज्ञया तर्जन्यधंग्रहे शतम् ॥५८ सहस्रमयुतं लक्षं पूर्वयुक्तं च विश्रुतम् । मणिबन्धे पुनः कोटी हस्तसज्ञाविदो विदुः ॥५९ क्रयाणकेष्वदृष्टेषु न सत्यङ्कारमर्पयेत् । दद्याच्चेद्वहुभिः सार्धमिच्छेल्लक्ष्मों वणिग्यदि ॥६० कुर्यात्तत्रार्थसम्बन्धमिच्छेद्यत्र न सौहृदम् । यदृच्छया न तिष्ठेच्च प्रतिष्ठाभङ्गभीरुकः ॥६१ व्यापारिभिश्च विप्रैश्च सायुधैश्च वणिग्वरः । श्रियमिच्छन् न कुर्वीत व्यवहारं कदाचन ॥६२ नटे पण्याङ्गनायां च द्यूतकारे विटे तथा। दद्यादुद्धारकं नैव धनरक्षापरायणः ॥६३ धर्मबाधाकरं यच्च यच्च तस्कराद्धृतम् । भूरिलाभकरं ग्राह्यं पुण्यं पुण्याथिभिर्न तत् ॥६४ ग्रहण करने पर क्रमशः एक, दो, तीन और चारका संकेत जानना चाहिए। तथा अंगूठेके साथ उन सभी अंगुलियोंके पकड़नेपर पाँचका संकेत जानना चाहिए ॥५३॥ पुनः कनिष्ठा आदिके तलभागके स्पर्श करनेपर दशका संकेत जानना चाहिए। पुनः तर्जनीको आदि लेकर शेष अंगुलियोंको नखसे दबानेपर यथाक्रमसे एक, दो, तीन और चारसे युक्त दश अर्थात् क्रमसे ग्यारह, बारह, तेरह और चौदहका संकेत जानना चाहिए। हाथके तलभागका स्पर्श करनेपर पन्द्रहका सकेत माना जाता है ।।५४-५५।। कनिष्ठा आदि अंगुलियोंके तलभागके स्पर्श करनेपर क्रमसे छह, सात, आठ और नौसे अधिक दशका संकेत हस्तसंज्ञाके विशारद पुरुषोंको जानना चाहिए ॥५६॥ पुनः तर्जनी आदिके आदि भागको लेकर यथाक्रमसे दो, तीन, चार और पाँचके ग्रहण करनेपर क्रमशः बीस, तीस, चालीस और पचासकी कल्पना करनी चाहिए ॥५७|| पुनः कनिष्ठा आदि अंगुलियोंके तलभागके ग्रहण करनेपर यथाक्रमसे साठ, सत्तर, अस्सी और नव्वै तथा तर्जनीके अर्धभागके ग्रहण करनेपर सोका संकेत जानना चाहिए ॥५८|| पुनः अनामिकाके मध्यभागके ग्रहण करनेपर हजारका, मध्यमाके मध्यभागके ग्रहण करनेपर दश हजारका, तर्जनीके मध्यभागके ग्रहण करनेपर लाखका और अंगूठेके मध्यभागके ग्रहण करनेपर दश लाखका संकेत प्रसिद्ध है । हाथके मणिबन्ध (पहुँचा) पकड़नेपर करोड़का संकेत हस्तसंज्ञाके विज्ञजन जानते हैं।॥५९।।
किरानाकी वस्तुओंके नहीं देखनेपर सत्यकार (लेना पक्का करनेके लिए अग्रिम मूल्य) नहीं देवे। यदि देवे भी, तो यदि व्यापारी लक्ष्मीको चाहता है तो बहुत जनोंके साथ उनकी साक्षोसे देवे ॥६०। जहाँ मित्रता न चाहे, वहींपर व्यापारीको धनका सम्बन्ध करना चाहिए । तथा अपनी प्रतिष्ठाके भंगसे डरनेवाले व्यापारीको बिना किसी प्रयोजनके जहाँ कहीं नहीं ठहरना चाहिए ॥६१॥ ____लक्ष्मी की इच्छा करनेवाले श्रेष्ठ वैश्यको चाहिए कि वह व्यापारियोंके साथ, ब्राह्मणोंके साथ और शस्त्रधारी पुरुषोंके साथ लेन-देनका व्यवहार न करे ॥६२॥ धनकी रक्षा करने में तत्पर वैश्यको चाहिए कि वह नटको, बाजारू स्त्री वेश्याको, जुआरीको तथा विट (भांड) नट आदि कुत्सित पुरुषोंको धन उधार न देवे ॥६३॥ जो धर्ममें बाधा करनेवाला हो, तथा जो चोरी करके लाया हुआ हो, ऐसा बहुत भी लाभकारी धन पवित्र पुण्यके इच्छुक जनोंको नहीं ग्रहण करना
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