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कुन्दकुन्द श्रावकाचार अकर्णदुबलः सूरः कृतज्ञः सास्विको गुणी। बवान्यो गुणराशिश्च प्रभुः पुष्यैरवाप्यते ॥७७ स्वतन्त्रः स्वपवित्रात्मा सेवकाऽऽगमनस्पृहो । उचित्पयि (?) क्षमी रमः सलज्यो दुर्लभः प्रभुः ॥७८ . विद्वानपि परित्याज्यो नेता मूखंजनावृतः । मूर्योऽपि सेव्य एवासी बहुश्रुतपरिच्छदः ॥७९ स्वामिसम्भावितैश्वयं सेव्यः सेव्यगुणान्वित: । सत्क्षेत्रबोजवत्कालान्तरेऽपि स्यान्न निष्फलः ।।८० स्वामिभक्तो महोत्साहः कृतज्ञो धार्मिकः शुचिः । अकर्कशः कुलोनश्च स्मृतिज्ञः सत्यभाषकः ॥८१ विनोतः स्थूललक्षश्चाव्यसनो वृद्धसेवकः । अक्षुद्रः सत्त्वसम्पन्नः प्राज्ञः शूरोऽचिरक्रियः ।।८२ राजा परीक्षितः सर्वोपधासु निजदेशजः । राजार्थस्वार्थलोकार्थकारको निष्पहः शसी ॥४३ .. अमोघवचनः कल्यः पालिताशेषवर्शनः । पुत्रौचित्येन सर्वत्र नियोजितपदक्रमः ॥८४
आन्वीक्षिको त्रयो वार्ता दण्डनीतिकृतः समः।
क्रमागमो वणिवपुत्रैः सेव्यो मन्त्री न चापरः ॥८॥ (कुलकम्) अभ्यासी वाहने शास्त्रे, शस्त्रे च विजये रणे । स्वामिभक्तो जितापासः, सेव्यः सेनापतिः धिये ॥८६ अवञ्चक: स्थिरः प्राज्ञः, प्रियवाग्विक्रमः शुचिः। अलुब्धः सोद्यमो भक्तः सेवकः सद्धिरिष्यते ॥८७ करनेको भले ही निन्दा करें, किन्तु उनकी सेवाके बिना स्वजनोंका उद्धार और दुर्जनोंका संहार होना सम्भव नहीं है ॥७६।। जो कानोंका दुर्बल न हो, सूर हो, कृतज्ञ हो, सात्त्विक स्वभावी हो, गुणी हो, उदार हो और गुणोंका भण्डार हो, ऐसा स्वामी पुण्यसे ही प्राप्त होता है ।।७७॥ स्वतंत्र, स्वयं पवित्रात्मा, सेवक जनोंके बागमनका इच्छुक, उचित मार्गपर चलनेवाला, क्षमाशील, चतुर और लज्जावान् स्वामी मिलना दुर्लभ है ॥७८॥
मूर्खजनोंसे घिरा रहनेवाला विद्वान् भी नेता परित्याज्य है और उत्तम शास्त्रज्ञ पुरुषोंके परिवारवाला मूर्ख भी नेता सेवा करनेके योग्य है ॥७९॥ जिसमें स्वामीके योग्य ऐश्वर्य की संभावना हो और जो सेवन करनेके योग्य गुणोंसे युक्त हो, ऐसा स्वामी सेवा करनेके योग्य है। क्योकि वह उत्तम खेतमें बोये गये बीजके समान कालान्तरमें भी फलको देगा, किन्तु निष्फल नहीं रहेगा ।।८०||
अब राजाका मन्त्री कैसा हो ? यह बतलाते हैं जो स्वामीका भक्त हो, महान उत्साहवाला हो, कृतज्ञ हो, धार्मिक हो, पवित्र हृदयवाला हो, कर्कश स्वभावी न हो, कुलीन हो, स्मृति-शास्त्र का वेत्ता हो, सत्यभाषी हो, विनीत हो, विशाल लक्ष्यवाला हो, व्यसन-रहित हो, वृद्धजनोंकी सेवा करनेवाला हो, क्षुद्रता-रहित हो, सत्त्वसे सम्पन्न हो, बुद्धिमान् हो, शूरवीर हो, शीघ्र कार्य करनेवाला हो, राजाके द्वारा सभी विषयोंमें परीक्षित हो, जिसका अपने ही देशका जन्म हो, राजा के अर्थका, अपने प्रयोजनका और लोगोंके स्वार्थका करनेवाला हो, लोभ-लालचसे रहित हो, शासन करनेवाला हो, व्यर्थके वचन न बोलता हो, सुन्दर हो, सभी दार्शनिकोंके सिद्धान्तोंका पालक हो, सर्व लोगोंपर पुत्रोचित व्यवहारको करता हो, आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता और दण्ड नीति से कार्य करनेवाला हो, समभावी हो, और कुल-परम्परागत क्रमका ज्ञाता हो, ऐसा मन्त्री ही वणिक-पुत्रोंके द्वारा सेवा करनेके योग्य है. अन्य नहीं ॥८१-८५॥
अब सेनापति कैसा हो? यह निरूपण करते हैं जो घोड़े आदिकी सवारी करने में अभ्यासवाला हो, शास्त्रोंमें और शस्त्र-संचालनमें कुशल हो, रणमें विजय प्राप्त करनेवाला हो, स्वामीका भक्त हो, और दुर्व्यसनोंका जीतनेवाला हो, ऐसा सेनापति अपने कल्याणके लिए सेवनीय है ।।८६।। सेवक कसा हो? यह बतलाते हैं जो वंचक न हो, स्थिर स्वभावी हो, बुद्धिमान
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