________________
२०
श्रावकाचार-संग्रह चित्रेश्च मण्डलैरेभिरन्तर्जेया यथाक्रमम् । खद्योतो वालुकारक्तभेकोऽम्बुगृहगोधिका ॥१७९ बर्दुरः कृकलासश्च गोधाखू सर्पवृश्चिकौ । सन्तान-विभव-प्राणराज्योच्छेदश्च तत्फलम् ॥१८० कोलिकाछिद्रसुषिरत्रासजालकसन्धयः । मण्डलानि च गारश्च महद्दषणहेतवे ॥१८१ प्रतिमायां दवरका भवेयश्चेत्कथञ्चन । सहश्वर्णा न दृष्यन्ति वर्णान्यत्वे च दषिताः ॥१८२ कृतदेवादिकृत्यः सन्नुपदेशं गुरोः शुभम् । श्रोतुकामो गुरोः पाश्र्वे गच्छेदत्यादरात् पुमान् ॥१८३ कदाचित् कार्यतः स्वस्य पार्श्वमेति यदा गुरुः । पर्युपास्तिं तदा कुर्यादेव शिष्यस्य युज्यते ॥१८४ अम्युत्तिष्ठेद् गुरौ दृष्टऽभिगच्छेत्तं तवागमे । उत्तमाङ्गे जलं न्यस्य ढोकयेत्स्वयमासनम् ॥१८५ नमस्कुर्यात्ततो भक्त्या पर्युपासीत चादरात् । तद्याते त्वनुयायाच्च क्रमोऽयं गुरुसेवने ॥१८६ मंडल हो और उसके भीतर यथा क्रमसे खद्योत, उलूक, लालवर्णका भेक (मेंढक) जल, गृहगोधिका (छिपकली) दर्दुर, (बड़ा मेंढक) कृकलास (गिरगिट) गोधा (गोह) मूषक, सांप और विच्छू इनमेंसे कोई आकार दिखाई दे तो उसका फल सन्तान, वैभव, प्राण, और राज्यका उच्छेद जानना चाहिए ॥१७७-१८०॥ जिस पाषाण या काष्ठमें मूत्ति उत्कीर्णको जाना है उसमें कीलिका, छिद्र, पोल, रेखा, मकड़ीका जाल, सन्धि और चक्राकार मंडल दिखाई देवें, अथवा गार (गीलापन) हो तो वह महान् दूषणका कारण है ॥१८१।। भावार्थ-जिस पत्थर या काष्ठको प्रतिमा बनाना हो उसपर पूर्वोक्त लेप करनेसे यदि मधुके वर्ण जैसा मंडल दिखाई दे तो भीतर खद्योत (जुगुनू) जाने । भस्म-सदृश मंडल दिखे तो बाल रेत, गुड़-सदृश मंडल दिखे तो भीतर लालमेंढक, आकाशवर्णका मंडल दिखे तो भीतर जल, कपोतवर्ण-सदृश मंडल दिखे तो भीतर छिपकली, मंजीठ-सदृश मंडल दिखे तो मेंढक, रक्तवर्ण मंडल दिखे तो भीतर गिरगिट, पीतवर्णका मंडल दिखे तो भीतर गोह, कपिल वर्णका मंडल दिखे तो भीतर उन्दुर (मूषक) काले वर्णका मंडल दिखे तो भीतर सर्प और चित्र (अनेक) वर्णका मंडल दिखे तो भीतर बिच्छू है, ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकारके दागवाले पत्थर या लकड़ीके होनेपर, सन्तान, लक्ष्मी, प्राण और राज्यका विनाश होता है। अतएव उक्त प्रकारके पाषाण या काष्ठमें मूत्ति उत्कीर्ण नहीं करनी चाहिए ॥१७८-१८१।।
प्रतिमामें यदि कदाचित् डोरे या धागे दिखाई दें और वे मूतिके समान ही वर्णवाले हों तो कोई दोष-कारक नहीं हैं। यदि उनका वर्ण मूतिके वर्णसे अन्य हो तो वे दोष-कारक हैं ॥१८२।। इस प्रकार मन्दिरमें जाकर देव-पूजनादि आवश्यक कार्य करके गुरुके शुभ उपदेशको सुननेकी कामनासे गुरुके समीप उस पुरुषको अति आदरसे जाना चाहिए ॥१८३।। यदि कदाचित् गुरु ही किसी कार्यसे अपने पास आवें तो शिष्यको उनको भलीभाँतिसे पर्युपासना करना ही चाहिए ॥१८४।। गुरुको आता हुआ देखकर अपने आसनसे उठ खड़ा हो, उनके आगमनपर सामने जावे, और मस्तकपर जल धारण करके उनको बैठनेके लिए स्वयं आसन प्रस्तुत करना चाहिए ॥१८५।। तत्पश्चात् उन्हें भक्तिसे नमस्कार करे और आंदर-पूर्वक उनकी उपासना करे । पुनः उनके जानेपर उनके पीछे कुछ दूरतक जावे। गुरुकी सेवा-उपासना करने में यही क्रम है ॥१८॥
१. विवपरिवारमजमे सेलस्स य वण्णसंकरं न सुहं । सम अंगुलप्पमाणं न सुंदरं हवा कइया वि ॥
(वास्तुसार, प्र० २, गा० ३)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org