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और भी बढ़ाया और जिन-प्रतिमा, वीरचर्या, सिद्धान्त ग्रन्थ और प्रायश्चित्तशास्त्र अध्ययन तकका उनके लिए निषेध कर दिया। किसी-किसी विद्वान्ने तो सिद्धान्त ग्रन्थ आदिके र ननेका भी अनधिकारी घोषित कर दिया। यह स्पष्टतः वैदिक संस्कृतिका प्रभाव है, जहाँ पर कि शूद्रोंको वेदाध्ययनका सर्वथा निषेध किया गया है, और उसके सुननेपर कानोंमें गर्म शीशा डालनेका विधान किया गया है।
. क्षुल्लकोंको जो पात्र रखने और अनेक घरोंसे भिक्षा लाकर खानेका विधान किया गया है, वह भी संभवतः उनके शूद्र होनेके कारण ही किया गया प्रतीत होता है। सागारधर्मामृतमें ग्यारहवीं प्रतिमाधारी द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकके लिए जो 'आर्य' संज्ञा दी गई है, वह भी क्षुल्लकोके जाति, कुल आदिकी अपेक्षा हीनत्वका द्योतन करती है।
उक्त स्वरूपवाले क्षुल्लकोंको किस श्रावक प्रतिमामें स्थान दिया जाय, यह प्रश्न सर्वप्रथम आचार्य वसुनन्दिके सामने आया प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम ग्यारहवीं प्रतिमार्क दो भेद किये हैं। इनके पूर्ववर्ती किसी भी आचार्यने इस प्रतिमाके दो भेद नहीं किये हैं, प्रत्युत बहुत स्पष्ट शब्दोंमें उसकी एकरूपताका ही वर्णन किया है । आचार्य वसुनन्दिने इस प्रतिमाधारीके दो भेद करके प्रथमको एक वस्त्रधारक और द्वितीयको कौपीनधारक कहा है (देखो गाथा नं० ३०१)। वसुनन्दिने प्रथमोत्कृष्ट श्रावकका जो स्वरूप दिया है, वह क्षुल्लकके वर्णनसे मिलताजुलता है और उसके परवर्ती विद्वानोंने प्रथमोत्कृष्टकी स्पष्टतः क्षुल्लक संज्ञा दी है, अतः यही अनुमान होता है कि उक्त प्रश्नको सर्वप्रथम वसुनन्दिने ही सुलझाने का प्रयत्न किया है। इस प्रथमोत्कृष्टको क्षुल्लक शब्दसे सर्वप्रथम लाटीसंहिताकार पं० राजमल्लजीने ही उल्लेख किया है, हालांकि स्वतन्त्र रूपसे क्षुल्लक शब्दका प्रयोग और क्षुल्लक व्रतका विधान प्रायश्चित्तचूलिकामें किया गया है, जो कि ग्यारहवीं शताब्दीके पूर्वकी रचना है। केवल क्षुल्लक शब्दका उपयोग पद्मपुराण आदि कथा ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर दृष्टिगोचर होता है और उन क्षुल्लकोंका वैसा ही रूप वहाँ पर मिलता है, जैसा कि प्रायश्चित्तचूलिकाकारने वर्णन किया है।
ग्यारहवीं प्रतिमाके दो भेदोंका उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य वसुनन्दिने किया, पर वे दो भेद प्रथमोत्कृष्टके रूपसे ही चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी तक चलते रहे। सत्तरहवीं दातीके विद्वान् पं० राजमल्लजीने अपनी लाटीसंहितामें सर्वप्रथम उनके लिए क्रमशः क्षुल्लक और ऐलक शब्दका प्रयोग किया है। क्षुल्लक शब्द कबसे और कैसे चला, इसका उल्लेख हम ऊपर कर आये हैं। यह ऐलक' शब्द कैसे बना और इसका क्या अर्थ है, यह बात यहाँ विचारणीय है। इस 'ऐलक' पदके मूल रूपकी ओर गंभीर दृष्टिपात करनेपर यह भ० महावीरसे भी प्राचीन प्रतीत होता है। भ० महावीरके भी पहलेसे जैन साधुओंको 'अचेलक' कहा जाता था । चेल नाम वस्त्रका है । जो साधु वस्त्र धारण नहीं करते थे, उन्हें अचेलक कहा जाता था। भगबती आराधना, मूलाचार आदि सभी प्राचीन ग्रन्थोंमें दिगम्बर साधुओंके लिए अचेलक पदका व्यवहार हुआ है। पर भ० महावीरके समय अचेलक साधुओंके लिए नग्न, निर्ग्रन्थ और दिगम्बर शब्दोंका प्रयोग बहुलतामें होने लगा। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि महात्मा बुद्ध और उनका शिष्य-समुदाय १. उत्कृष्टः श्रावको देषा क्षुल्लकश्चैलकस्तथा।
एकादशवतस्वो दोस्तो दो निर्जरको क्रमात् ॥५५।।-(श्रावका० मा० ३ पृ० १४६)
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