________________
( ११७ )
१. स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकमें अर्हत्पूजनका विधान करते हुए भी अभिषेकका कोई वर्णन नहीं किया है । ( देखो - भा० १ पृ० १४ श्लोक ११९-१२० )
२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा में प्रोषधोपवासकी समाप्तिपर पात्रको दान देनेके पूर्व पूजन करनेका उल्लेखमात्र किया है | अभिषेकका कोई संकेत नहीं है । ( भा० १ पृ० २६ गा० ७५ )
३. महापुराणमें पूजनके नित्यमह आदि चारों भेदोंका स्वरूप-वर्णन करते हुए और एक स्थानपर 'बलि-स्नपनादि' का उल्लेख करते हुए ( भा० १ पृ० ३१ श्लोक ३३ ) भी पञ्चामृताभिषेकका कहीं कोई निर्देश नहीं है । जबकि गर्भाधानादि क्रियाओंका वर्णन करते हुए अपने कथनकी पुष्टिमें 'श्रुतोपासक सूत्र' ( भा० १ पृ० ३० श्लोक २४ । पृ० ९३ श्लोक १७४), 'श्रावकाध्यायसंग्रह' ( भा० १ पृ० ३३ श्लोक ५० ), मूलोपासकसूत्र ( पृ० ३५ श्लोक ८६ | पृ० ६१ श्लोक ५७ | पृ० ६४ श्लोक ९५ ), क्रियाकल्प ( पृ० ३४ श्लोक ६९ । पृ० ६१ श्लोक ५३), औपासिकसूत्र ( पृ० ३८ श्लोक ११८), उपासकाध्ययन ( पृ० ९२ श्लोक १६१ ), उपासकाध्याय ( पृ० ९२ श्लोक १६५), उपांसकसंग्रह ( पृ० ९३ श्लोक १७७ ) और औपासिक सिद्धान्त ( पृ० ९६ श्लोक २१३ ) आदि विभिन्न नामोंसे विभिन्न स्थलोंपर उपासकाचारसूत्रका उल्लेख किया है
४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय में प्रभावना अंगका वर्णन करते हुए 'दान- तपो - जिनपूजा' वाक्यमें केवल जिनपूजाका नामोल्लेख है ( भा० १ पृ० १०१ श्लोक ३० ) तथा प्रोषधोपवासके दिन प्रासुक द्रव्योंसे जिनपूजन करनेका विधान किया है ( पृ० ११५ श्लोक १५५ ) जलाभिषेक या पञ्चामृता
का कोई निर्देश नहीं है ।
५. सोमदेवने यशस्तिलकगत उपासकाध्ययनमें पूजनका विस्तृत वर्णन किया है और अभिषेकका वर्णन करते हुए लिखा है- 'ये वे ही जिनेन्द्रदेव हैं, यह सिंहासन ही सुमेरु पर्वत है और कलशोंमें भरा हुआ यह जल ही साक्षात् क्षीरसागरका जल है, ऐसा कहकर (भा० १ पृ०१८२ श्लोक ५०३ ) जलसे अभिषेक कराया है । पश्चात् दाख, खजूर, नारियल, ईख, आँवला, केला, आम तथा सुपारीके रसोंसे अभिषेक कराया है ( भा० १ पृ० १८२ श्लोक ५०७) तत्पश्चात् घी, दूध, दही, इलायची और लोंग आदिके चुर्णसे जिन बिम्बकी उपासना करनेका विधान किया है ( भा० १ पृ० १८२ श्लोक ५०८-५११ ) ।
इस प्रकार सोमदेवने सर्वप्रथम पञ्चामृताभिषेकका विधान किया है। उनका यह विधान अन्यत्र दर्शित आचमन आदिके विधानके समान ही हिन्दुओंमें प्रचलित पूजन-अभिषेकका अनुकरण है ।
६. चामुण्डरायने अपने चारित्रसार में श्रावक व्रतोंका वर्णन कर अन्तमें इज्या, वार्ता आदि छह आर्य कर्मोके वर्णनमें पूजनके महापुराणोक्त चारों प्रकारोंकी पूजाओंका स्वरूप कहकर स्नपनअभिषेक करनेका निर्देश मात्र किया है । ( भा० १ पृ० २५८ अनु० २ )
७. अमितगतिने अपने श्रावकाचार में पूजनके दो भेद करके द्रव्यपूजा और भावपूजाका स्वरूप वर्णन किया है, ( भा० १ पृ० ३७३ श्लोक ११-१५ ), इससे आगे उन्होंने जिन-पूजाका माहात्म्य और फल वर्णन करके लिखा है कि जिनस्तव, जिनस्नान और जिनोत्सव करनेवाले पुरुष भी लक्ष्मीको प्राप्त होते हैं ( पृ० ३७५ श्लोक ४० ) । इसके सिवाय और कहीं पर भी अभिबेकका कोई निर्देश नहीं किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org