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प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सन्निधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ॥
। (देखो-भाग १ पृष्ठ १८० श्लोक ४९५) पूजनके समय जिनेन्द्र प्रतिमाके अभिषेककी तैयारी करनेको प्रस्तावना कहते हैं। जिस स्थानपर अर्हद्विम्बको स्थापितकर अभिषेक करना है, उस स्थानकी शुद्धि करके जलादिकसे भरे हुए कलशोंको चारों ओर कोणोंमें स्थापना करना पुराकर्म कहलाता है। इन कलशोके मध्यवर्ती स्थानमें रखे हुए सिंहासनपर जिनबिम्बके स्थापन करनेको स्थापना कहते हैं। 'ये वही जिनेन्द्र हैं, यह वही सुमेरुगिरि है, यह वही सिंहासन है, यह वही साक्षात् क्षीरसागरका जल कलशोंमें भरा हुआ है, और में साक्षात् इन्द्र बनकर भगवान्का अभिषेक कर रहा हूँ', इस प्रकारकी कल्पना करके प्रतिमाके समीपस्थ होनेको सन्निधापन कहते हैं। अर्हत्प्रतिमाकी आरती उतारना, जलादिकसे अभिषेक करना, अष्टद्रव्यसे अर्चा करना, स्तोत्र पढ़ना, चंवर ढोरना, गीत, नृत्य आदिसे भगवद्भक्ति करना यह पूजा नामका पाँचवाँ कर्तव्य है। जिनेन्द्र-बिम्बके पास स्थित होकर इष्ट प्रार्थना करना कि हे देव, सदा तेरे चरणोंमें मेरी भक्ति बनी रहे, सर्व प्राणियोंपर मैत्री भाव रहे, शास्त्रों का अभ्यास हो, गुणी जनोंमें प्रमोद भाव हो, परोपकारमें मनोवृत्ति रहे, समाधिमरण हो, मेरे कर्मोका क्षय और दुःखोंका अन्त हो, इत्यादि प्रकारसे इष्ट प्रार्थना करनेको पूजा फल कहा गया है । (देखो श्रावका० भाग १ पृष्ठ १८० आदि, श्लोक ४९६ आदि)
पूजाफलके रूपमें दिये गये निम्न श्लोकोंसे एक और भी तथ्यपर प्रकाश पड़ता है। वह श्लोक इस प्रकार है
प्रातविधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्याह्नसन्निधियं मुनिमाननेन । सायंतनोऽपि समयो मम देव यायान्नित्यं त्वदाचरणकीर्तनकामितेन ।।
(भाग १ पृ० १८५ श्लोक ५२९) अर्थात्-हे देव, मेरा प्रातःकाल तेरे चरणोंकी पूजासे, मध्याह्नकाल मुनिजनोंके सन्मानसे और सायंकाल तेरे आचरणके संकीर्तनसे नित्य व्यतीत हो।
पूजा-फलके रूपमें दिये गये इस श्लोकसे यह भी ध्वनि निकलती है कि प्रातःकाल अष्ट द्रव्योंसे पूजन करना पौर्वाह्निक पूजा है, मध्याह्नकालमें मुनिजनोंको आहार आदि देना माध्याह्निक पूजा है और सायंकालके समय भगवद्-गुण कीर्तन करना अपराह्निक पूजा है। इस विधिसे त्रिकाल पूजा करना श्रावकका परम कर्तव्य है और सहज साध्य है।
उक्त विवेचनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आहवानन, स्थापन और सन्निधीकरणका आर्षमार्ग यह था, पर उस मार्गके भूल जानेसे लोग आजकल यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति करते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
तदाकार स्थापनाके अभावमें अतदाकार स्थापना की जाती है। अतदाकार स्थापनामें प्रस्तावना, पुराकर्म आदि नहीं किये जाते, क्योंकि जब प्रतिमा ही नहीं है, तो अभिषक आदि किसका किया जायगा? अतः पवित्र पुष्प, पल्लव, फलक, भूर्जपत्र, सिकता, शिलातल, क्षिति, व्योम या हृदयमें अर्हन्तदेवकी अतदाकार स्थापना करनी चाहिए। वह अतदाकार स्थापना किस प्रकार करनी चाहिए, इसका वर्णन आचार्य सोमदेवने इस प्रकार किया है :
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