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श्रावकाचार-संग्रह
व्यतीपाते रवेरि सङ्क्रान्तौ ग्रहणेषु च । बन्तकाष्ठं नाचाष्टम्यां भूतपक्षान्तषट तिथौ ॥७३ अभावे दन्तकाष्ठस्य मुखशुद्धिविधिः पुनः । कार्यों वा दशगण्डूजिहोल्लेखस्तु सर्वदा ॥७४ विलिख्य रदनां जिह्वां विलेखिन्या शनैः शनैः । शुचिप्रदेशे प्रक्षाल्य दन्तकाष्ठं पुनरस्त्यजेत् ॥७५ सम्मखं पतितं स्वस्य ज्ञानाय विदिशां त्यजेत् । ऊर्ध्वस्थं च सुखाय स्यादन्यथा दुःखहेतवे ॥७६ ऊवं स्थित्वा क्षणं पश्चात पतत्येतद्यदा पुनः । मिष्टाहार तदादेश्येत्तद्दिने शास्त्रकोविदैः ॥७७ कासश्वासज्वराजीणंशोकतृष्णाऽऽस्यपाकयुक् । तन्न कुर्याच्छिरोनेत्रहृत्कर्णामयवानपि ॥७८ प्रातः शनैः शनैर्नम्यो रोगहत शुद्धवारिणः । गृह्नन्तो नासिकातोयं गजागर्जन्ति नीरुजः ॥७९
उक्त चसुगन्धपवनाः स्निग्धनिःश्वना विमलेन्द्रियाः । निर्बली-पलितव्यङ्गा भवेयुनंश्यशीलिनः ॥८० आस्यशोषाधरस्फोटस्वरभङ्गनिवृत्तये। पारुष्यदन्तरुकछित्यै स्नेहगण्डूषमुहेत ॥८१ केशप्रसाधनं नित्यं कारयेदथ निश्चलम् । कराभ्यां यगपत्कुर्यात्स्वोत्तमाङ्गे च तत्पुनः ।।८२ तिलकं द्रष्टुमादर्शो मङ्गलाय च वीक्ष्यते । दृष्ट देहे शिरोहीने मृत्युः पञ्चदशे दिने ॥८३ भातृ-प्रभूतिधृद्धभ्यो नमस्कारं करोति यः । तीर्थयात्राफलं तस्य तत्कार्योऽसौ दिने दिने ॥८४
चन्द्र ग्रहणके समय दोनों षष्ठी और अष्टमी कृष्णा चतुर्दशी और अमावस्या इन छह तिथियोंमें काष्ठकी दातुन न करे ॥७३॥ काष्ठकी दातुनके अभावमें मुखकी शुद्धि दश कुल्लोंसे करे और जीभके मैल की सफाई तो सदा ही करनी चाहिए ॥७४।। विलेखिनी ( दातुन ) से दांतोंको और जीभको धीरे-धीरे साफ करके उसे जलसे धोकर स्वच्छ स्थानमें डाल देना चाहिए ।।७।।
___ सम्मुख गिरी हुई दातुन अपने ज्ञानकी वृद्धिके लिए होती है, वक्र दिशामें दातुन न फेंके । ऊपरी स्थानपर गिरी हई दातून सुख के लिए होती है, इसके अतिरिक्त अन्यत्र गिरी हई दातुन दुःखके लिए होती ॥७६॥ फेंकी हुई दातुन एक क्षण ऊपर ठहरकर पुनः नीचे गिरे तो उस दिन मिष्ट आहार मिलेगा, ऐसा शास्त्र-वेत्ताओंको कहना चाहिए ॥७७।। खांसी, सांस, ज्वर, अजीर्ण, शोक, तृष्णा ( प्यास ) और मुख-पाकसे युक्त मनुष्यको दातुन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार शिर, नेत्र, हृदय और कानोंकी पीड़ावाला मनुष्य भी दातुन न करे ।।७।।
प्रातः काल शुद्ध जलको धीरे-धीरे नाकके द्वारा ग्रहण करनेसे सर्व रोग दूर होते हैं । नाकसे जलको ग्रहण करनेवाले मनुष्य नीरोग रहते हैं और गजके समान गर्जना करते हैं ।।७९।। कहा भी है-नासिकासे जल ग्रहण करनेवाले मनुष्य सुगन्धित पवन ( दुर्गन्ध-रहित अपानवायु ) वाले, स्निग्ध निःश्वासवाले, निर्मल इन्द्रियोंवाले, बलि ( झुर्रिया ) पलित ( श्वेतकेश ) और अंग-भंगसे रहित होते हैं ।।८०॥ मुख-शोष, अधर-स्फोट और स्वर-भंगको निवृत्तिके लिए, तथा परुषता और दन्त-रोगोंके दूर करनेके लिए तैलके कुल्ले करना चाहिए ।।८१॥ दन्तधावन करनेके पश्चात् केशोंका प्रसाधन नित्य निश्चलरूपसे करावे । अथवा अपने दोनों हाथोंसे एक साथ अपन मस्तकमें तेल-मर्दन करे ।।८।। मस्तकपर तिलक लगानेके लिए और मंगलके लिए दर्पणमें मुख देखना चाहिए । दर्पण में यदि शिर-विहीन शरीर दिखे तो पन्द्रहवें दिन मृत्यु होती है ।।८३।। जो पुरुष प्रातःकाल माता, पिता आदि वृद्ध जनोंको नमस्कार करता है, उसे तीर्थयात्रका फल प्राप्त होता है । इसलिए प्रतिदिन मनुष्यको चाहिए कि वह वृद्धजनोंको नमस्कार करे ।।८४॥
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