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कुन्दकुन्द श्रावकाचार
उक्तं च
मातृ-पित्रो रतोरस्कक्रियामुद्दिश्य याचकः । मृतशय्या प्रतिग्राही न पुनः पुरुषो भवेत् ॥८५
तथा
वृद्धो च माता-पितरौ साध्वी भार्या प्रियः सुतः । अपकार्यशतं कृत्वा भर्तव्या मनुरब्रवीत् ॥८६
अन्यच्च
अनुपासितवृद्धानामसेवितमहीभुजाम् । आचारमुक्तसुहृदां दूरे धर्माथंतुष्टयः ॥८७ ततः स्नात्वा शिरस्कण्ठावयवेषु यथोचितम् । पवित्रयितुमात्मानं जलमंन्त्रक्रमेण वा ॥८८ वस्त्रशुद्ध मनःशुद्धि कृत्वा त्यक्त्वाऽथ दूरतः । नास्तिकादीनप्य क्षिप्त्वा पुण्यपूजागृहान्तरे ॥८९ आश्रयन् दक्षिणां शाखामर्चयन्नथ देहलीम् । तामस्पृशन् प्रविश्येत दक्षिणेनाङ्घ्रिणा पुनः ॥९० सुगन्धैर्मधुरैर्द्रव्यैः प्राङ्मुखो वाप्युदङ्मुखः । वामनाड्यां प्रवृत्तायां मौनवान् देवमर्चयेत् ॥९१ सङ्कलाद्विजने भव्यः सुशब्दान्मौनवान् शुभः । मौनिना मानसः श्रेष्ठो जप्यः श्लाघ्यपरः परः ॥९३ पूजाद्रव्यार्जनोद्वाहे दुर्गादिसरिदाक्रमे । गमागमे जीविते च गृहक्षेत्रादिसङ्ग्रहे ॥ ९३
कहा भी है- माता - पिताके औरस पुत्रोचित श्राद्ध आदि क्रियाके उद्देश्यसे याचना करनेवाला और मृतशय्याको ग्रहण करनेवाला व्यक्ति पुन: ( जन्मान्तर में ) पुरुष नहीं होता है ॥ ८५ ॥ भावार्थ- वैदिकों एवं स्मृतिकारोंके मतानुसार पितरोंका श्राद्ध करना आवश्यक है और मृत व्यक्ति सूतक दूर होनेके दिन वस्त्रादि युक्त शय्याका दान करना भी आवश्यक है उसे दक्षिणा में लेनेवाला पुरुष नीच या निन्द्य माना जाता है । फिर भी यदि कोई निर्धन या याचक पुरुष उस मृतशय्याको ग्रहण करके अपने पित्तादिका श्राद्ध करता है तो कह स्वर्गका देव होता है ।
तथा -- वृद्ध माता-पिता, सती साध्वी नारी और शिष्ट पुत्र इनका भरण पोषण सैकड़ों अपकार्यं करके भी करना चाहिए, ऐसा मनुने कहा है || ८६|| और भी कहा है- वृद्ध जनोंकी उपासनासे रहित, राजाओं की सेवासे विहीन एवं आचारहीन मित्रोंके धर्म, धन और सन्तोषकी प्राप्ति दूर ही रहती हैं ॥८७॥
तत्पश्चात् शिर, कण्ठ आदि अंगोंका जलसे यथायोग्य स्नान करके शरीर शुद्धि करे और आत्माको पवित्र करनेके लिए शास्त्रोक्त मंत्रोंके क्रमसे स्नान करे । पुनः वस्त्र-शुद्धि और मनः शुद्धि करके नास्तिक आदि जनोंको दूरसे छोड़कर उन्हें स्पर्श नहीं करता हुआ पुण्य (पवित्र) पूजा - गृह भीतर जाता हुआ दक्षिण शाखाका आश्रय लेकर और पूजा - गृहकी देहलीकी अर्चा करता हुआ, उसे स्पर्श नहीं करके दाहिने पगसे उसमें प्रवेश करे ।। ८८- ९० ।। वहाँ पर पूर्व दिशाकी ओर अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके सुगन्धित मधुर द्रव्योंसे वाम नाडीके चलनेपर मौन रखता हुआ देवकी पूजन करे ||९१ ॥ | यदि देव - गृह जन-संकुल हो तो सुन्दर शब्दोंको उच्चारण करता हुआ भव्य पुरुष पूजन करे। यदि देव गृह जन-रहित ( एकान्त ) हो तो मौन रखना ही शुभ है । मौन रखने से चित्त स्वच्छ एवं निर्मल होता है । तत्पश्चात् मौन-पूर्वक श्रेष्ठ जपका जाप करना श्रेष्ठसे श्रेष्ठ है ॥९२॥
पूजन करते समय, द्रव्यके उपार्जन करनेमें, विवाहमें, दुर्ग आदिके और नदीके पार करते समय, गमन और आगमनमें जीवित रहनेमें; गृह और क्षेत्र आदिके संग्रह करनेमें, वस्तुओंके क्रय
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