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श्रावकाचार-संग्रह क्रय-विक्रयणे वृष्टौ सेवाकृषिद्विषज्जये। विद्यापट्टाभिषेकादो शुभेर्थे च शुभे शशी ॥९४ अग्रस्थो वामगो वापि ज्ञेयः सोमदिशि स्थितः। पृष्ठस्यो दक्षिणस्थश्च विज्ञेयः सूर्यभागभाक् ॥९५ प्रश्ने प्रारम्भणे वापि कार्या नो वामनसिका। पूर्णा वायोः प्रवेशश्च तदा सिद्धिरसंशयम् ॥९६ । योद्धा समाक्षरावरचे दूतो वामे व्यवस्थितः । तदा जयो विपर्यासे हजयं मतिमान् वदेत् ॥९७ प्रवाहो यदि वान्दोः कथञ्चिागपद् भवेत् । विजयादीनि कार्याणि समानि च तदाऽऽदिशेत् ॥९८ मुद्गलायेगृ होतस्य विषार्तस्याथ रोगिणः । प्रश्ने समाक्षराह्वश्चेदित्यादि प्राग्वदादिशेत् ।।९९ नामग्रहं द्वये प्रश्ने जयाजयविधी वदेत् । पूर्वोत्तस्य जयं पूर्ण पक्षे रिक्त परस्य तु ॥१०० रोगिप्रश्ने च गृह्णीयात्पूर्वं ज्ञात्यमिघा यदि । पश्चाद व्याधिमतो नाम तज्जीवति नान्यथा ॥१०१ योद्धृणां रोगितानां च प्रभृष्टानां निजात्पदात् । प्रश्ने युद्धविधौ वैरि-सङ्गमे सहसा भवेत् ॥१०२ स्नाने पानेऽशने नष्टान्वेषे पुत्रार्थमैथुने । विवादे दारुणेऽर्थे च सूर्यनाडी प्रशस्यते ॥१०३ नासायां दक्षिणस्यां तु पूर्णायामपि वायुना। प्रश्नाः शुभस्य कार्यस्य निष्फलाः सकला अपि ॥१०४ यथाशक्ति ततश्चिन्त्यं तयोनित्यं तदग्रतः । यस्य प्रभावतः सर्वाः सम्भवन्ति विभूतयः ॥१०५ और विक्रय में,वर्षाके समयमें, सेवा, कृषि और शत्रुको जीतनेके समय, विद्यारम्भमें तथा पट्टाभिषेक आदि शुभ कार्यमें चन्द्रनाड़ी शुभ है ।।९३-९४॥
किसी बातको पूछनेके लिए आया हुवा मनुष्य यदि आगे आकर बैठे, या बांई ओर बैठे तो उसे चन्द्र दिशामें स्थित जानना चाहिए। यदि वह पीठकी ओर या दाहिनी ओर आकर बैठे तो सूर्य दिशा वाला जानना चाहिए ॥९५॥ प्रश्न करते समय अथवा किसी कार्यके प्रारम्भमें वाम-नासिका वाली नाड़ी नहीं होना चाहिए। दोनों नाड़ियोंका स्वर पूर्ण हो, और वायुका प्रवेश और निर्गमन हो रहा हो तो निःसन्देह कार्यकी सिद्धि होगी ॥१६॥ युद्ध करने वाले का दूत यदि समान अक्षर बोले और वाम दिशामें आकर बैठा हो प्रश्नकर्ता तथा उत्तरदाताका वाम स्वर हो तो उसकी जीत होगी। इससे विपरीत यदि वह विषय अक्षरोंको बोले और दक्षिण दिशामें आकर बैठे तो मतिवान् पुरुष पराजयको कहे ॥१७॥ यदि कदाचित् सूर्य और चन्द्रनाड़ीका प्रवाह एक साथ हो रहा हो तो विजय आदि कार्योंका समान निर्देश करना चाहिए, अर्थात् दोनों की परस्पर सन्धि हो जायगी ॥९८॥
मुद्गर, लाठी आदि लेकर आया हुआ, विषसे पीड़ित और रोगी पुरुषका दूत यदि समान अक्षरोंको बोले तो उसका शुभ फल कहे। और यदि वह विषम अक्षर बोले तो पूर्वके समान ही अशुभ फल कहे ॥९९|| यदि विषार्त और रोगीके नाम सम-विषमाक्षरके हों तो उनके नामके अक्षरोंको ग्रहणकर जय और पराजय कहे। अथवा पूर्वोक्त पूर्ण स्वरमें समान अक्षर वालेकी जीत और रिक्त पक्षमें (खाली स्वरमें) दूसरेका पराजय कहे ॥१०॥ रोगीके प्रश्नमें पहले जातिका नाम आवे और पीछे व्याधिवालेका नाम बोला जावे तो वह जीवित रहता है, अन्यथा इसके विपरीत दशामें वह जीता नहीं है ॥१०॥ - योद्धाओंके, रोगियोंके और अपने पदसे परिभ्रष्ट हुए लोगोंके प्रश्नमें, युद्ध-विधिमें और वैरीके समागममें सहसा मृत्यु, पराजय या पद भ्रष्टता होतो है ।।१०२॥ स्नान करने में, खान-पानमें विनष्ट वस्तुके अन्वेषण करनेमें, पुत्रोत्पादनके लिए मैथुन-सेवन करनेमें, वाद-विवादमें, और दारुण कार्य करने में सूर्यनाड़ी प्रशस्त मानी गई है ॥१०३।। दक्षिण नासिकाके वायुसे पूर्ण होनेपर भी शुभ कार्यके लिए किये गये सभी प्रश्न निष्फल होते हैं ॥१.४॥ जिसके प्रभावसे सभी प्रकार
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