________________
६
श्रावकाचार-संग्रह
उक्तं च
वेगान्न धारयेद्वात- विण्मूत्रक्षुततृट्कुधा । निद्राकाशश्रम श्वास- जृम्भाऽश्रु छविरेतसाम् ॥५२ गन्धवाह-प्रवाहस्य निजं पृष्ठमनयेत् । स्त्री- पूज्यागोचरे लोप्ठद्वये न्यस्तपदः सुधीः ॥५३ मन्दं मन्दं ततः कृत्वा निरोधस्य विमोचनम् । निशाख्या दुष्ट मृत्पिण्डेनोन्मृज्याच्च गुदान्तरम् ॥५४ शुक्रक्षुतशकृन्मूत्रं जायते युगपद्यदि । तत्र मासे दिने वत्सरान्ते तस्य मृतिर्भवेत् ॥५५ विमुच्यान्याः क्रियाः सर्वा जलशोचपरायणः । गुदां लिङ्गं च पाणी च पूतया शोधयेन्मृदा ॥ ५६ श्लेष्माधिक्येन कर्तव्यो व्यायामस्तद्विनाशकः । ज्वलिते जठराग्नौ च न कार्यो हितमिच्छता ॥५७ गतिशक्त्यर्थमेवासौ क्रियमाणः सुखावहः । गात्रस्य वृद्धिकार्यार्थं सोऽश्वानामिव स्वोचितः ॥५८ गजाद्येर्वाहनैर्युक्तं व्यायामो दिवसोदये । अमृतोपम एवासी भवेयुस्ते च शिक्षिताः ॥५९ दन्तदाढंघाय तर्जन्या घर्षयेद्दन्तपीठिकाम् : आदावत: परं कुर्याद्दन्तधावनमादरात् ॥६० यदाद्यवारि-गण्डूषाद् बिन्दुरेकः प्रधावति । कण्ठे तदा न ज्ञेयं शीघ्रमञ्जनमुत्तमम् ॥ ६१
. कहा भी है- वायुके वेगको, विष्टा, मूत्र, छींक, प्यास, क्रोध, निद्रा, खांसी, परिश्रम, श्वास, जंभाई, अश्रु-पात, वमन और वीर्य-पात इनके वेगको नहीं धारण करे । अर्थात् जब इनका वेग प्रबल हो तब तुरन्त ही उनका यथायोग्य स्थानपर विमोचन कर देना चाहिए । (अन्यथा अनेक प्रकारके रोगोंके उत्पन्न होनेका भय रहता है ) ||५२ ||
मल-मूत्र के विमोचन करनेवाले मनुष्यको चाहिए कि वह पवनके प्रवाहको अपनी पीठ न देवे, अर्थात् जिस ओरसे वायु बह रही हो, उस ओर मुख करके मल-मूत्रका विमोचन करे । स्त्रीजनोंके और पूज्य पुरुषोंके अगोचर ऐसे स्थानपर दो लोष्ठोंपर पग रख करके बुद्धिमान् मनुष्यको धीरे-धीरे मल- विमोचन करना चाहिए। तत्पश्चात् तीक्ष्णता - रहित मृदु पीत मृत्पिण्डसे गुदा मध्यभागका प्रमार्जन करे || ५३ ५४॥ | यदि मल-मूत्र विमोचन करते समय वीर्य, छींक, मल और मूत्र ये चारों एक साथ हों तो उसका मरण उस दिन, एक मासमें, या वर्षके अन्त में होगा, ऐसा जानना चाहिए || ५५|| मल- विमोचनके पश्चात् अन्य सर्व क्रियाएँ छोड़कर जलसे शौच शुद्धि करनेमें तत्पर पुरुषको पवित्र मिट्टीसे गुदा, लिंग और अपने हाथोंकी शुद्धि करनी चाहिए ॥ ५६ ॥
फकी अधिकता वाले मनुष्यको कफ-विनाशक व्यायाम करना चाहिए। यदि जठराग्नि प्रज्वलित हो, अर्थात् भूख जोरसे लग रही हो तो आत्म-हितेच्छु पुरुष व्यायाम न करे ॥५७॥ गमन शक्तिके लिए अर्थात् शरीर में रक्त संचारके लिए किया गया वह व्यायाम सुख-कारक होता है । वह व्यायाम जिस प्रकार घोड़ोंके दौड़ाने आदिसे उनकी शरीर वृद्धिके लिए होता है, उसी प्रकार मनुष्यके द्वारा किया गया व्यायाम शरीर वृद्धिके लिए होता है ॥५८॥
सूर्योदयके समय हाथी-घोड़े आदिके द्वारा किया गया व्यायाम अमृतके समान शरीरको सुख-कारक होता है । परन्तु जिन हाथी घोड़ों आदि पर बैठकर दौड़ाने आदिके रूपमें व्यायाम किया जावे, वे शिक्षित होने चाहिए ||५९ ||
दांतोंकी दृढ़ताके लिए पहले तर्जनी अँगुलीसे दाँतों की पीठिकाको अर्थात् मसूड़ोंका घर्षण करे । तत्पश्चात् आदरसे सावधानी - पूर्वक दन्त धावन करे ||६०|| जब प्रथम बार जलके कुल्लेसे एक बिन्दु कंठमें शीघ्र दौड़े, अर्थात् कंठके भीतर चला जावे, तब मनुष्यको 'उत्तम दन्त मार्जन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org