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कुन्दकुन्द श्रावकाचार
पृथ्व्यप्तस्त्वे शुभे स्यातां वह्निवातौ च नो शुभो ।
अर्थसिद्धिः स्थिरोर्व्यां तु शीघ्रमम्भसि निर्दिशेत् ॥४३
निष्ठीवनेन दन्तादेस्तथा कुर्यान्निघर्षणम् । अङ्गदाढंघाय पाणिम्यां वज्रीकरणमादिशेत् ॥४४ वज्रनामकमाकष्ठः पातव्यमथवाऽग्नयः । पाथः प्रसृतयोऽष्टौ वाप्योग्रा केचिद्वदन्त्यकः ॥४५ न स्वपेदन्योऽन्यमायासं कुर्यात्पीत्वा जलं सुषीः । मासीनः सपदि शास्त्रार्थान् दिनकृत्यानि च स्मरेत् ॥४६
प्रातः प्रयमेवाथ स्वपाणि दक्षिणं पुमान् । पश्येद्वामं च वामाक्षी निजपुण्यप्रकाशकम् ॥४७ मौनी वस्त्रावृतः कुर्याद्दिने सन्ध्याद्व येऽपि च । उदङ्मुखः शकृन्मूत्रे राशौ पास्या (?) नमः पुमान् ॥४८ नक्षत्रेषु नभस्थेषु भ्रष्ट तेजस्सु भास्वतः । यावद्दिवोदयस्तावत्प्रातः सन्ध्याभिधीयते ॥४९ भस्म - गोमय-गोस्थानवल्मीक शकृदादिमत् । उत्तमद्रुमसप्ताचिमार्गनीराश्रयादि च ॥५० स्थानं चित्तादिविकृत तथा कूलङ्कषातटम् । वर्जनीयं प्रयत्नेन वेगाभावेऽन्यथा न तु ॥ ५१
पृथ्वी और जलतत्त्व शुभ होते हैं । उक्त कार्यों में अग्नि और वायुतत्त्व शुभ नहीं होते हैं। पृथ्वी तत्त्वमें स्थिर अर्थ को सिद्धि होती है । जलतत्त्वमें कार्यकी सिद्धि शीघ्र होती है, ऐसा कहना चाहिए ।।४२-४३।।
( उठकर ) जलसे कुरला करनेके साथ दाँतों आदिका घर्षण करे । तथा शरीर को दृढ़ताके लिए दोनों हाथोंसे वज्रीकरणका निर्देश करे, अर्थात् दोनों हाथोंको ऊपर उठाकर आजू-बाजू और पीछे पोठकी ओर ले जाना चाहिए ॥४४॥
अथवा कितने ही विद्वान् वज्रीकरण का यह भी अर्थ कहते हैं कि कष्ठ पर्यन्त वायुका पान करना चाहिए, या तीन प्रसृति ( चुल्लु या आठ प्रसृति प्रमाण जल-पान करके उसे गले में अंगुलियाँ डालकर वापिस निकालना चाहिए ||४५ ॥
बुद्धिमान पुरुषको चाहिए कि वह जल पीकरके न सोवे और परिश्रमका कोई कार्य ही करे । प्रातःकाल उठकर एकान्तमें जहाँ पर किसीका पैर न पड़ा हो बैठकर शास्त्र के अर्थोका और दिन में करने योग्य कार्यों का विचार करना चाहिए ||४६ ॥ प्रातः काल उठते समय सर्व प्रथम मनुष्य अपने 'पुण्य-प्रकाशक दाहिने हाथको देखे । तथा स्त्री अपने वाम हाथको देखे ||४७||
मनुष्यको चाहिए कि वह दोनों सन्ध्याओं में, तथा दिनमें मौन रखता हुआ, वस्त्रोसे आवृत होकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके मल-मूत्र का विमोचन करे । तत्पश्चात् सोच-शुद्धि कर (१) उपास्य जनोंको नमस्कार करे ॥४८॥
प्रातः काल जब आकाश-स्थित नक्षत्र तेज-भ्रष्ट हो जावें और जब तक सूर्यका उदय न होवे, तब तक का वह समय प्रातः कालीन सन्ध्या के नामसे कहा कहा जाता है ||४९ ॥
भस्म (राख) गोबर, गायका स्थान, बल्मीक (सांपकी बाँकी) तथा विष्टावाला स्थान, पीपल - बड़ आदि उत्तम वृक्ष, अग्नि, मार्ग और जलकं आशयभूत तालाब, वावड़ी आदि, तथा चित्तम विकार करने वाला स्थान एवं नदीका किनारा इत्यादि स्थानोंको मल-मूत्रके वेगके अभावमें प्रयत्न पूर्वक छोड़ना चाहिए, अर्थात् उक्त स्थानोंपर मल-मूत्र-विमोचन न करे । अन्यथा अर्थात् यदि मल-मूत्रका वेग प्रबल हो तो मनोनुकूल स्थानपर ( जब जैसा अवसर हो ) तब उक्त स्थानोमस कहीं किसी एक स्थानपर मल-मूत्रका विमोचन कर सकता है ॥५०-५१ ॥
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