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अर्हन्नतनुमध्ये दक्षिणतो गणधरस्तथा पश्चात् । श्रुतगीः साधुस्तदनु च पुरोपि दृगवगमवृत्ताति ॥४८॥ भूर्जे, फलके सिचये शिलातले सकते क्षिती व्योम्नि। हृदये चेति स्थाप्याः समयसमाचारवेदिभिनित्यम् ॥४९॥
(देखो भाग १ पृ. १७३) अर्थात्-भूर्जपत्र आदि पवित्र बाह्य वस्तुमें या हृदयके मध्य भागमें बर्हन्तको, उसके दक्षिण भागमें गणधरको, पश्चिम भागमें जिनवाणीको, उत्तरमें साधुको और पूर्वमें रत्नत्रयरूप धर्मको स्थापित करना चाहिए। यह रचना इस प्रकार होगी:
रत्नत्रय धर्म साधु अर्हन्तदेव गणधर
जिनवाणी इसके पश्चात् भावात्मक अष्टद्रव्यके द्वारा क्रमशः देव, शास्त्र, गुरु और रत्नत्रय धर्मका पूजन करे। तथा दर्शनभक्ति, ज्ञानभक्ति, चारित्रभक्ति, पंचगुरुभक्ति, सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति और शान्तिभक्ति करे। आचार्य सोमदेवने इन भक्तियोंके स्वतंत्र पाठ दिये हैं। शान्तिभक्तिका पाठ इस प्रकार है :
भवदुःखानलशान्तिधर्मामृतवर्षजनितजनशान्तिः । शिवशर्मास्रवशान्तिः शान्तिकरः स्ताज्जिनः शान्तिः ।। ४८१ ॥
__ (देखो-भाग १ पृष्ठ १७८) यह पाठ हमें वर्तमानमें प्रचलित शान्तिपाठकी याद दिला रहा है।
उपर्युक्त तदाकार और अतदाकार पूजनके निरूपणका गंभीरतापूर्वक मनन करनेपर स्पष्ट प्रतीत होता है कि वर्तमानमें दोनों प्रकारको पूजन-पद्धतियोंकी खिचड़ी पक रही है, और लोग यथार्थ मार्गको बिलकुल भूल गये हैं।
निष्कर्ष तदाकार पूजन द्रव्यात्मक और अतदाकार पूजन भावात्मक है। गृहस्थ सुविधानुसार दोनों कर सकता है। पर आचार्य वसुनन्दि और गुणभूषण इस हुंडावसर्पिणीकालमें अतदाकार स्थापनाका निषेध करते हैं। वे कहते हैं कि लोग यों ही कुलिंगियोंके यद्वा-तद्वा उपदेशसे मोहित हो रहे हैं, फिर यदि ऐसी दशामें अर्हन्मतानुयायी भी जिस किसी वस्तुमें अपने इष्ट देवकी स्थापना कर उसकी पूजा करने लगेंगे, तो साधारण लोगोंसे विवेकी लोगोंमें कोई भेद न रह सकेगा । तथा सर्वसाधारणमें नाना प्रकारके सन्देह भी उत्पन्न होंगे। (देखो-भाग १ पृष्ठ ४६४ माथा ३८५)
__ यद्यपि आचार्य वसुनन्दिका अतदाकार स्थापना न करनेके विषयमें तर्क या दलील है तो युक्ति-संगत, पर हुंडावसर्पिणीका उल्लेख किस आधारपर कर दिया, यह कुछ समझमें नहीं आया? खासकर उस दशामें, जब कि उनके पूर्ववर्ती आचार्य सोमदेव बहुत विस्तारके साथ उसका प्रतिपादन कर रहे हैं । फिर एक बात और विचारणीय है कि क्या पंचम कालका ही नाम हुंडावसर्पिणी है, या प्रारंभके चार कालोंका नाम भी है। यदि उनका भी नाम है, तो क्या चतुर्थकालमें
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