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भी अतदाकार स्थापना नहीं की जाती थी? यह एक प्रश्न है, जिसपर कि विद्वानों द्वारा विचार किया जाना आवश्यक है।
उमास्वामिश्रावकाचार, धर्मसंग्रह श्रावकाचार और लाटीसंहितामें पूजनके पाँच उपचार बतलाये हैं-आवाहन, स्थापन, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन । इन तीनों ही श्रावकाचारोंमें स्थापनाके तदाकार और अतदाकार भेद न करके सामान्यरूपसे पूजनके उक्त पाँच प्रकार बतलाये हैं। फिर भी जब सोमदेव-प्ररूपित उक्त छह प्रकारोंको सामने रखकर इन पाँच प्रकारोंपर गम्भीरतासे विचार करते हैं, तब सहजमें ही यह निष्कर्ष निकलता है कि ये पांचों उपचार अतदाकार स्थापना वाले पूजनके हैं, क्योंकि अतदाकार या असद्भावस्थापनामें जिनेन्द्रके आकारसे रहित ऐसे अक्षत-पुष्पादिमें जो स्थापना की जाती है, उसे अतदाकार या असद्भाव स्थापना कहते हैं। अक्षत-पुष्पादिमें जिनेन्द्रदेवका संकल्प करके 'हे जिनेन्द्र, अत्र अवतर, अवतर' उच्चारण करके आह्वानन करना, 'अत्र तिष्ठ तिष्ठ' बोलकर स्थापन करना और 'अत्र मम सन्निहितो भव' कहकर सन्निधीकरण करना आवश्यक है। तदनन्तर जलादि द्रव्योंसे पूजन करना चौथा उपचार है। पुनः जिन अक्षत-पुष्पादिमें जिनेन्द्रदेवकी संकल्पपूर्वक स्थापना की गई है उन अक्षतपुष्पादिका अविनय न हो, अतः संकल्पसे ही विसर्जन करना भी आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार अतदाकार स्थापनामें यह पञ्च उपचार सुघटित एवं सुसंगत हो जाते हैं इस कथनकी पुष्टि प्रतिष्ठा दीपकके निम्नलिखित श्लोकोंसे होती है
साकारा च निराकारा स्थापना द्विविधा मता। अक्षतादिनिराकारा साकारा प्रतिमादिषु ॥ १ ॥ आह्वानं प्रतिष्ठानं सन्निधीकरणं तथा । पूजा विसर्जनं चेति निराकारे भवेदिति ॥२॥ साकारे जिनबिम्बे स्यादेक एवोपचारकः ।
स चाष्टविध एवोक्तं जल-गन्धाक्षतादिभिः ॥ ३ ॥ अर्थ-स्थापना दो प्रकारकी मानी गयी है-साकारस्थापना और निराकारस्थापना। प्रतिमा आदिमें साकार स्थापना होती है और अक्षत-पुष्पादिमें निराकार स्थापना होती है। निराकार स्थापनामें आह्वानन, स्थापन, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन ये पाँच उपचार होते हैं । किन्तु साकार स्थापनामें जल, गन्ध, अक्षत आदि अष्ट प्रकारके द्रव्योंसे पूजन करने रूप एक ही उपचार होता है।
___ इन सब प्रमाणोंके प्रकाशमें यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वर्तमानमें जो पूजन-पद्धति चल रही है, वह साकार और निराकार स्थापनाकी मिश्रित परिपाटी है । विवेकी जनोंको उक्त आगममार्गसे ही पूजन करना चाहिए।
अतएव निराकार पूजनके विसर्जनमें 'आहूता ये पुरा देवा' इत्यादि श्लोक न बोलकर 'सङ्कल्पित जिनेन्द्रान्-विसर्जयामि' इतना मात्र बोलकर पुष्प-क्षेपण करके विसर्जन करना चाहिए।
_ 'आहूता ये पुरा देवा' इत्यादि विसर्जन पाठ-गत श्लोक तो मूत्ति-प्रतिष्ठा और यज्ञादि करनेके समय आह्वानन किये गये इन्द्र, सोम, यम, वरुण आदि देवोंके विसर्जनार्थ है और उन्हींको लक्ष्य करके 'लब्धभागा यथाक्रमम्' पद बोला जाता है, जैसा कि आगे किये गये वर्णनसे पाठक जान सकेंगे।
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