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वामदेवने अपने संस्कृत भावसंग्रहमें लिखा है- 'जिनावासं विशेन्मन्त्री समुच्चार्य निषेधिकाम्' अर्थात् 'निषेधिका' का उच्चारण कर जिनालय में प्रवेश करे । श्रावक प्रतिक्रमणपाठमें वह निषेधिकादण्डक इस प्रकार दिया गया है—
जैन परम्परामें नौ देव माने गये हैं- १. अरिहन्त, २. सिद्ध, ३. आचार्य, ४. उपाध्याय, ५. साधु, ६. जिन मन्दिर, ७. जिन-विम्ब, ८. जिनधर्म, और ९ जिनशास्त्र । प्रकृत णमो णिसीहियाए' का अर्थ जिन-बिम्ब युक्त जिन मन्दिरको नमस्कार हो' यह लेना चाहिए । उक्त पद बोलते हुए जिनमन्दिरकी देहलीका स्पर्शकर मस्तकपर लगानेका अर्थ जिनमन्दिरको नमस्कार करना है ।
३०. जिनेन्द्र-पूजन कब सुफल देता है
यद्यपि स्वामी समन्तभद्रने पांच अणुव्रत और तीन गुणव्रत धारण करनेके पश्चात् शिक्षा व्रतोंके अभ्यास करने वाले श्रावकको चौथे शिक्षाव्रतके अन्तर्गत जिन-पूजनका विधान किया है, तो भी सामान्य गृहस्थोंका ध्यान उस पर न जाकर 'देव-पूजा' श्रावकका प्रथम कर्तव्य है, इसलिए उसे करना चाहिए। इस विचारसे वे उसे करते हैं । परन्तु किसी भी शुभ कार्यको करनेके पूर्व अशुभ कार्यकी निवृत्ति आवश्यक है, इस बात पर उनका ध्यान ही नहीं जाता है । वस्त्र-गत या शरीर-गत मलको दूर किये बिना वस्त्र या शरीरको शुद्धि या स्वच्छता जैसे संभव नहीं है, उसी प्रकार पंच पापरूप मलको दूर किये बिना जिन-पूजन के योग्य आत्मिक शुद्धि या पवित्रताका होना भी संभव नहीं है । यही कारण है कि पाँच पापोंके स्थूल त्याग किये बिना अर्थात् अणुव्रतोंके धारण किये बिना जो लोग जिन-पूजन करते हैं उन्हें उसका यथेष्ट फल नहीं मिलता है । पउमचरिय और पद्मचरित के अनुसार श्रीद्युति आचार्य भरतको जिन-पूजन करनेका उपदेश देते हुए कहते हैं
हे भरत, जो प्रथम अहिंसारत्नको ग्रहण कर जिनदेवका पूजन करता है वह देवलोकमें अनुपम इन्द्रिय- सौख्य भोगता है ।" जो सत्यव्रतका नियम धारण करके जिनपरको पूजता है, वह मधुरभाषी, आदेय-वचन होकर संसारमें अपनी कीर्त्तिका विस्तार करता है । जो अदत्तादान (चोरी) का त्यागकर जिन-नाथको पूजता है वह मणि-रत्नोंसे परिपूर्ण नव निधियोंका स्वामी १. पढममहिंसारयणं गेण्हेउं जो जिणं सो भुंबइ सुरलोए इंदियसोक्खं हिसारत्नमादाय विपुलं यो भक्त्याऽचयत्यसो नाके परमां वृद्धिमश्नुते ॥ १४९ ॥ ( पद्मच० प० ३२ )
२. सन्ववयणियमधरों जो पूयइ जिणवरं पयत्तेणं ।
सो होइ महुर-वयणो भुजइ य परंपरसुहाई ॥ ६४ ॥ ( पउम० उ० ३२ ) सत्यव्रतधरः सृग्भिर्य: करोति जिनार्चनम् ।
भवत्यादेयवाक् योऽसौ सत्कीत्तिव्याप्तविष्टपः ॥ १५० ॥ ( पद्मच० प० ३२ )
३. परिहरिऊण अदत्तं जो जिणणाहस्स कुणइ वर-पूयं ।
सो णवणिहीण सामी होही मणि रयणपुण्णाणं ॥ ६५ ॥ ( उम० उ० ३२ ) अदत्तादाननिर्मुक्तो जिनेन्द्रान् जायते
यो
नमस्यति ।
रत्नपूर्णानां नदीनां
विभुः ॥ १५१ ॥ ( पद्मच० प० ३२ )
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समच्चेइ ।
अणोवमियं ॥ ६३ ॥ ( पउम० उ० ३२ ) जिनाधिपम् ।
ਚ
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