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जो विचार-शील जैन श्रावकधर्म धारण करनेका विचार भी करते हैं, वे परवर्ती ग्रन्थकारोंके द्वारा प्रतिपादित बोझिल श्रावक-धर्मको देखकर ही डर जाते हैं और उसे मूलरूपसे भी धारण करनेका साहस नहीं कर पाते हैं। उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि मिट्टी-लकड़ीसे बना घर भी घर कहलाता है, इंट-चूनेसे बना भी घर पर है और सीमेन्ट-लोहेसे वना या वातानुकूलित घर भी घर कहलाता है। जिस मनुष्यकी जैसी आर्थिक स्थिति होती है, वह उसीके अनुसार अपने घरको बनाता है। इसी प्रकार जिस व्यक्तिको जैसी कौटुम्बिक परिस्थिति, आर्थिक स्थिति और आत्मिक शक्ति हो, उसे उसी प्रकारका स्वयोग्य श्रावकधर्म धारण करना चाहिए।
संयमासंयम या देश चारित्र लब्धिके जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तक असंख्यात स्थान होते हैं, उनमेंसे जो जितने अंशका पालन कर सके, उतना ही अच्छा है। ज्यों-ज्यों विषय-कषायोंकी मन्दता होगी, त्यों-त्यों वह संयमासंयम लब्धिके ऊपरी स्थानों पर चढ़ता जायगा और अन्तमें संयम लब्धिको भी प्राप्त कर लेगा।
सबसे ध्यान देनेकी बात यह है कि सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंके ऊपर श्रावक और मुनि धर्मका भव्य प्रासाद खड़ा होता है। यदि कोई श्रावक या मुनि धर्मका पालन करते हुए भी सम्यक्त्वके आठों अंगोंका पालन नहीं करता है तो उसका वह धर्म-प्रासाद बिना नींवके मकानके समान ढह जावेगा । आज लोगोंकी इस मूलमें ही भूल हो रही है। जो लोग अपनेको तत्त्वज्ञ मानते हैं और स्वयंको सम्यग्दृष्टि कहते हैं, उनमें भी उपगृहन, स्थितिकरण और वात्सल्य जैसे अंगोंका अभाव देखा जाता है और जो अपनेको व्रती मानते हैं, उनमें भी निःकांक्षित, अमूढदृष्टि आदि अंगोंका अभाव देखा जाता है और दोनोंमें एक दूसरेकी निन्दाका प्रचार पाया जाता है।
प्रायः सभी श्रावकाचारोंमें सम्यक्त्वके एक-एक अंगमें और श्रावकके एक-एक अणुव्रतमें प्रसिद्ध पुरुषोंकी कथाओंका वर्णन किया गया है। जिससे ज्ञात होता है कि एक ही अंग या व्रतके पालन करनेवाले व्यक्तिका भी बेड़ा पार हुआ है और वह लोकमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है। जिस प्रकार व्यसनोंमें सबसे बड़ा व्यसन जुआ खेलना है, क्योंकि वह सभी अनर्थों और व्यसनोंका मूल कारण है, उसी प्रकार सम्यक्त्वके सभी अंगोंमें निःशंकित और सभी व्रतोंमें अहिंसाव्रत प्रधान है। यदि मनुष्य इस प्रथम अंग और प्रथम व्रतको भी धारण करनेका प्रयल करे तो शेष अंगोंका पालन और शेष व्रतोंका धारण भो सहजमें ही क्रमशः उसके स्वयमेव हो जायगा।
आचार्य जिनसेनने श्रावकके लिए जिन पक्ष, चर्या और साधनका विधान किया है और परवर्ती आचार्योंने उनके पालन करनेवालोंके क्रमशः पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक नाम दिया है। इनमेसे आजके जैनोंको कमसे कम पाक्षिक श्रावकके कर्तव्योंका तो पालन करना ही चाहिए । वे कर्तव्य इस प्रकार हैं
१. वीतराग जिनदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और अहिंसामयी धर्मपर दृढ़ श्रद्धा रखना।
२. मद्य, मांस, मधुके सेवनका त्याग, रात्रि-भोजनका त्याग, अगालित जलपान, और वाजारू कोकाकोला आदि पेय-पदार्थोके पीनेका त्याग ।
३. सातों व्यसनोंका त्याग, स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्री-सेवनका त्याग। ४. काला बाजारीका त्यागकर न्यायपूर्वक धनोपार्जन करना। .
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