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श्री कन्दकन्द श्रावकाचार
शाश्वतानन्वरूपाय नमस्तेऽद्य कलावते । सर्वज्ञाय नमस्तस्मै कस्मैचित्परमात्मने ॥१ सोऽहं स्वायम्भुवं बुद्धं नरकान्तकरं गुरुम् । भास्वन्तं शङ्करं श्रीदं प्रणोमि प्रणतो जिनम् ॥२ जोवन्ती प्रतिमा यस्य वचो मधुरिमाञ्चितम् । देहं गेहं श्रियस्तं स्वं वन्दे जिनविधं गुरुम् ॥३ ईप्सितार्थप्रदः सर्वव्यापत्तापघनाघनः । अहं जागतु विश्वस्य हुदि श्रीधरणक्षमः ॥४ चञ्चलत्वं कलङ्घ ये श्रियो ददति दुधियः । ते मुग्धा स्वं न जानन्ति निविषं कर्म पुण्यकम् ॥५ लक्ष्मी कल्पलताया ये वक्ष्यमाणोक्ति-दोहदम् । इच्छन्ति सुधियोऽवश्यं तेषामिष्टा फले ग्रहिः ॥६ कार्यः सद्भिस्ततोऽवश्यमाश्वैतां दातुमुद्यमः । यद्दाने जायते दातुर्भुक्तिमुक्तिश्च निश्चिता ॥७ कुर्वोयं सर्वशास्त्रेभ्यः सारमुद्धृत्य किञ्चन । पुण्यप्रसवकृत्स्वर्गापवर्गफलपेशलम् ॥८ स्वस्यान्यस्यापि पुण्याय कुप्रवृत्ति-निवृत्तये । श्रावकाचारविन्यासग्रन्थः प्रारग्यते मितः ॥९ प्रवृत्तावत्र यो यत्नः क्वचित्कैश्चित्प्रदर्शितः । विवेकेनादतः सोऽपि निवृतौ पर्यवस्यति ॥१० अगदः पावनः श्रीदो जगच्चक्षुः सनातनः । एतैरन्वर्थतां यातु गन्थोऽयं पाठकैः सह ॥११
जो सदा आनन्दरूप है, सर्वदा ही पूर्ण कलावान् हैं, सर्व तत्त्वोंके ज्ञाता है, ऐसे उस किसी अनिर्वचनीय परमात्माके लिए नमस्कार हो ॥१२॥ जो सदा उदितस्वरूप हैं, स्वयम्भू है; बुद्ध हैं, नरकके दुःखोंका अन्त करनेवाले हैं, गुरु हैं, ज्ञानसे भासुरायमान है, शंकर अर्थात् सुखके करनेवाले हैं और अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीके दाता हैं, ऐसे श्री जिनदेवको मैं नम्रीभूत होकर नमस्कार करता हूं ।।२।। जो जीवन्त प्रतिमास्वरूप है, जिसके वचन माधुर्यसे परिपूरित हैं, जिनका देह लक्ष्मीका घर है ऐसे अपने उन गुरु श्रीजिनचन्द्रको मै वन्दन करता हूं ॥३।। वे गुरुदेव अभीष्ट अर्थके देने वाले हैं. विश्वमें सर्वत्र व्याप्त सन्तापको दूर करनेके लिए मेघोंके समान हैं, तथा समस्त संसारके हृदयमें लक्ष्मी धरने में समर्थ हैं, वे मेरी बुद्धिको जागृत करें ॥४॥ जो दुर्बुद्धिजन लक्ष्मी को चंचलताका कलंक प्रदान करते हैं, वे मुग्धजन विष-रहित अपने पुण्य कर्मको नहीं जानते
1५।। जो बद्धिमान लक्ष्मीरूप कल्पलताके वक्ष्यमाण वचनरूप दोहन (मनोवांछित अभिलाषा की पूर्ति) को चाहते हैं, उनकी अवश्य ही अभीष्ट फलके ग्रहणकी पूर्ति होती है ।।६। इसलिए अवश्य ही सज्जनोंको इस लक्ष्मोके दान करनेके लिए उद्यम करना चाहिए। जिस लक्ष्मीके दान करनेपर दाताको स्वर्गीय भोगों की प्राप्ति और मुक्ति निश्चितरूपसे होती है ॥७॥ सर्व शास्त्रोंसे कुछ सारको निकालकर मैं पुण्यको उत्पन्न करनेवाले और स्वर्ग तथा मोक्षरूप सुन्दर फलको देनवाले इस श्रावकाचार की रचना करता हूँ ॥८॥ अपने और दूसरोंके पूण्य-सम्पादनार्थ, तथा खोटो प्रवृत्तियोंकी निवृत्तिके लिए यह परिमित श्रावकाचारके वर्णनरूप ग्रन्थ प्रारम्भ किया जाता है ।।९।। इस श्रावकाचारके प्रवर्तनमें जो कुछ भी प्रयत्न कहीं पर भी किन्हीं महापुरुषोंने किया है
और उसे विवेकपूर्वक जिन पुरुषोंने समाहृत किया है, वह प्रयत्ल उन्हें मुक्तिमें पहुंचा करके विश्राम लेगा ॥१०॥ रोग-संहारक, पवित्र, लक्ष्मी-प्रदाता, जगज्जनोंके नेत्र-स्वरूप, सदासे चला आया यह श्रावकाचाररूप ग्रन्थ इसे पढ़नेवाले पाठकोंके साथ सार्थकताको प्राप्त होवे ।।११।। सूर्य
हैं
॥५॥
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