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ओंठ कुछ फड़कतेसे रहें, पर अक्षर बाहिर न निकलें, ऐसे भीतरी मन्द एवं अव्यक्त या अस्फुट उच्चारणको अन्तर्जल्प कहते हैं। व्यवहारमें देखा जाता है कि जो व्यक्ति सिद्धचक्रादिकी पूजापाठमें ६-६ घंटे लगातार खड़े रहते हैं, वे ही उसी सिद्धचक्र मन्त्रका जप करते हुए आध घंटेमें ही धबड़ा जाते हैं, आसन डांवाडोल हो जाता है, और शरीरसे पसीना झरने लगता है। इससे सिद्ध होता है कि पूजा-पाठ और स्तोत्रादिके उच्चारणसे भी अधिक इन्द्रिय-निग्रह जप करते समय करना पड़ता है और इसी इन्द्रिय-निग्रहके कारण जपका फल स्तोत्रसे कोटि-गुणित अधिक बतलाया गया है।
जपसे ध्यानका माहात्म्य कोटि-गुणित बतलाया गया है। इसका कारण यह है कि में कमसे कम अन्तर्जल्परूप वचन-व्यापार तो रहता है, परन्तु ध्यानमें तो वचन-व्यापारको भी सर्वथा रोक देना पड़ता है और ध्येय वस्तुके स्वरूप-चिन्तनके प्रति ध्याताको एकाग्र चित्त हो जाना पड़ता है। मनमें उठनेवाले संकल्प-विकल्पोंको रोककर चित्तका एकाग्र करना कितना कठिन है, यह ध्यानके विशिष्ट अभ्यासी जन ही जानते हैं। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः' को उक्तिके अनुसार मन ही मनुष्योंके बन्ध और मोक्षका प्रधान कारेण माना गया है। मनपर काबू पाना अति कठिन कार्य है। यही कारण है कि ज़पसे ध्यानका माहात्म्य कोटि-गुणित अधिक बतलाया गया है।
ध्यानसे भी लयका माहात्म्य कोटि-गुणित अधिक बतलाया गया है। इसका कारण यह है कि ध्यानमें किसी एक ध्येयका चिन्तन तो चालू रहता है, और उसके कारण आत्म-परिस्पन्द होनेसे कर्मास्रव होता रहता है, पर लयमें तो सर्व-विकल्पातीत निर्विकल्प दशा प्रकट होती है, समताभाव जागृत होता है और आत्माके भीतर परम आह्लादज़नित एक अनिर्वचनीय अनुभूति होती है। इस अवस्थामें कर्मोका आस्रव रुककर संवर होता है, इस कारण ध्यानसे लयका माहात्म्य कोटि-गुणित अल्प प्रतीत होता है । मैं तो कहूँगा संवर और निर्जराका प्रधान कारण होनेसे लयका माहात्म्य ध्यानकी अपेक्षा असंख्यात-गुणित है और यही कारण है कि परम समाधिरूप इस चिल्लय (चेतनमें लय) की दशामें प्रतिक्षण कोंकी असंख्यातगुणी निर्जरा होती हैं।
यहाँ पाठक यह बात पूछ सकते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र आदिमें तो संवरका परम कारण ध्यान ही माना है, यह जप और लयकी बला कहाँसे आई ? उन पाठकोंको यह जान लेना चाहिएं कि शुभ ध्यानके जो धर्म और शुक्लरूप दो भेद किये गये हैं, उनमेंसे धर्मध्यानके भी अध्यात्म दृष्टिसे पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, और रूपातीत ये चार भेद किये गये हैं। इसमेंसे आदिके दो भेदोंकी जप संज्ञा और अन्तिम दो भेदोंको ध्यान संज्ञा महर्षियोंने दी है। तथा शुक्ल ध्यानको परम समाधिरूप 'लय' नामसे व्यवहृत किया गया है । ज्ञानार्णव आदि योग-विषयक शास्त्रोंमें पर-समयवर्णित योगके अष्टाङ्गोंका वर्णन स्याद्वादके सुमधुर समन्वयके द्वारा इसी रूपमें किया गया है।
उपर्युक्त पूजा स्तोत्रादिका जहाँ फल उत्तरोत्तर अधिकाधिक है, वहां उनका समय उत्तरोत्तर हीन-हीन है। उनके उत्तरोत्तर समयकी अल्पता होनेपर भी फलकी महत्ताका कारण उन पांचोंकी उत्तरोत्तर हृदय-तल-स्पर्शिता है। पूजा करनेवाले व्यक्तिके मन, वचन, कायकी क्रिया अधिक बहिर्मुखी एवं चंचल होती है। पूजा करनेवालेसे स्तुति करनेवालेके मन, वचन, कायकी क्रिया स्थिर और अन्तर्मुखी होती है। आगे जप, ध्यान और लयमें यह स्थिरता और अन्तर्मुखता
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