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( १४९ ) मणसा होइ चउत्थं, छठ्ठफलं उठ्ठियस्स संभवइ। गमणस्स उ आरंभे, हवइ फलं अट्ठमोवासे ॥ ८९॥ गमणे दसमं तु भवे तह चेव दुवालसं गए किंचि। मज्झे पक्खोवासं मासोवासं तु दिद्रुण ॥ ९० ॥ संपत्तो जिणभवणं लहई छम्मासियं फलं पुरिसो।
संवच्छरियं तु फलं अणंतपुण्णं जिणथुईए ॥९१॥ (पउमचरिय, उद्देश ३२) इसी बातको आ० रविषेणने इस प्रकारसे प्रतिपादन किया है
फलं ध्यानाच्चतुर्थस्य षष्ठस्योद्यानमात्रतः । अष्टमस्य तदारम्भे गमने दशमस्य तु ॥ १७८ ॥ द्वादशस्य ततः किञ्चिन्मध्ये पक्षोपवासजम् । फलं मासोपवासस्य लभते चैत्यदर्शनात् ।। १७९ ॥ चंत्याङ्गणं समासाद्य याति पाण्मासिकं फलम् । फलं. वर्षोपवासस्य प्रविश्य द्वारमश्नुते ॥ १८० ।। फलं प्रदक्षिणीकृत्य भुंङ्गे वर्षशतस्य तु। दृष्ट्वा जिनाऽऽस्यमाप्नोति फलं वर्षसहस्रजम् ।। १८१ ॥ अनन्तफलमाप्नोति स्तुति कुर्वन् स्वभावतः ।
न हि भक्तेजिनेन्द्राणां विद्यते परमुत्तमम् ॥ १८२ ॥ (पद्मचरित, पर्व ३२) उपर्युक्त फल तभी प्राप्त होता है जब घरसे जिनेन्द्र दर्शनार्थ जानेवाला व्यक्ति मौनपूर्वक ईर्यासमितिसे गमन करता और जीव-रक्षा करता हुआ जाता है। उक्त भावको किसी हिन्दी कविने एक दोहेमें कहा है
जब चिन्तों तब सहस फल, लक्खा गमन करेय । कोड़ाकोड़ि अनन्त फल, जब जिनवर दरसेय ॥
२९. निःसहीका रहस्य (णमो णितीहीए) पं० आशाधरजीने तथा कुछ अन्य श्रावकाचारकर्ताओंने जिन-मन्दिरमें 'निःसही" ऐसा उच्चारण करते हुए प्रवेश करनेका विधान किया है । जैन समाजमें प्रायः आज सर्वत्र यह प्रचलित है कि लोग 'ओं जय जय निःसही' बोलते हुए हो मन्दिरोंमें प्रवेश करते हैं। इस 'निःसही' पदका क्या अर्थ है, यह न किसी श्रावकाचार-रचयिताने स्पष्ट किया है और न उनके व्याख्याकार या द्विन्दी अनवादकोंने ही। बहत पहले लगभग ६० वर्ष पूर्व ज्ञानचन्द्र जैनी लाहौर वालोंने अपने जैनबालगुटकाके दूसरे भागमें इसका यह अर्थ किया था कि यदि कोई देवादिक जिन-भगवान्के दर्शन कर रहा हो तो वह निकल जाय, या दूर हो जाय पर इसका पोषक-प्रमाण आज तक भी जैन ग्रन्थोंमें दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
हाँ, श्रावक-प्रतिक्रमणपाठोंमें एक निषीधिका-दंडक अवश्य उपलब्ध है, जो इस प्रकार
१. पूर्ण निषोधिका दंडक अर्थके साथ परिशिष्टमें दिया है।-सम्पादक
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