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( १४० ) ५. लय-एकरूपता, तल्लीनता या साम्य अवस्थाका नाम लय है। साधक किसी ध्येय विशेषका चिन्तवन करता हुआ जब उसमें तन्मय हो जाता है, उसके भीतर सर्व प्रकारके संकल्पविकल्पों और चिन्ताओंका अभाव हो जाता है और जब परम समाधिरूप निर्विकल्प दशा प्रकट होती है, तब उसे लय कहते हैं।
पूजा, स्तोत्र आदिके उक्त स्वरूपका सूक्ष्म दृष्टिसे अवलोकन करने और गम्भीरतासे विचारनेपर यह अनुभव हुए विना न रहेगा कि ऊपर जो इनका उत्तरोत्तर कोटि-गुणित फल बतलाया गया है, वह वस्तुतः ठीक ही है। इसका कारण यह है कि पूजामें बाह्य वस्तुओंका आलम्बन और पूजा करनेवाले व्यक्तिके हस्तादि अंगोंका संचालन प्रधान रहता है। और यह प्रत्येक शास्त्राभ्यासो जानता है कि बाहरी द्रव्य क्रियाओंसे भीतरी भावरूप क्रियाओंका महत्त्व बहुत अधिक होता है। असनी पंचेन्द्रिय तिथंच यदि अत्यधिक संक्लेश-युक्त होकर भी मोह कर्मका बन्ध करे, तो एक हजार सागरसे अधिकका नहीं कर सकेगा, जब कि संज्ञी पंचेन्द्रिय साधारण मनुष्यकी तो बात रहने दें, अत्यन्त मन्दकषायी और विशुद्ध परिणामवाला अप्रमत्तसंयत साधु भी अन्तःकोटाकोटी सागरोपमकी स्थितिवाले कर्मोका बन्ध करेगा, जो कई करोड़ सागर-प्रमाण होता है । इन दोनोंके बन्धनेवाले कर्मोकी स्थितिमें इतना महान् अन्तर केवल मनके सद्भाव और अभावके कारण ही होता है। प्रकृतमें इसके कहनेका अभिप्राय यह है कि किसी भी व्यक्तिविशेषका भले ही वह देव जैसा प्रतिष्ठित और महान क्यों न हो-स्वागत और सत्कारादि तो अन्यमनस्क होकर भी सम्भव है, पर उसके गुणोंका सुन्दर, सरल और मधुर शब्दोंमें वर्णन अनन्यमनस्क या भक्ति-भरित हुए बिना सम्भव नहीं है।
यहाँ यह एक बात ध्यानमें रखना आवश्यक है कि दुसरेके द्वारा निर्मित पूजा-पाठ या स्तोत्र-उच्चारणका उक्त फल नहीं बतलाया गया है । किन्तु भक्त द्वारा स्वयं निर्मित पूजा, स्तोत्र पाठ आदिका यह फल बतलाया गया है। पुराणोंके कथानकोंसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है। दो एक अपवादोंको छोड़कर किसी भी कथानकमें एकवार पूजा करनेका वैसा चमत्कारी फल दृष्टिगोचर नहीं होता, जैसा कि भक्तामर, कल्याण-मन्दिर, एकीभाव, विषापहार, स्वयम्भू स्तोत्र आदिके रचयिताओंको प्राप्त हुआ है। स्तोत्र-काव्योंकी रचना करते हुए भक्त-स्तोताके हृदयरूप मानसरोवरसे जो भक्ति-सरिता प्रवाहित होती है, वह अक्षत-पुष्पादिके गुण बखानकर उन्हें चढ़ानेवाले पुजकके सम्भव नहीं है। पूजनका ध्यान पूजनकी बाह्य सामग्रीकी स्वच्छता आदिपर ही रहता है, जबकि स्तुति करनेवाले भक्तका ध्यान एकमात्र स्तुत्य व्यक्तिके विशिष्ट गुणोंकी ओर ही रहता है। वह एकाग्रचित्त होकर अपने स्तुत्यके एक-एक गुणका वर्णन मनोहर शब्दोंके द्वारा व्यक्त करने में निमग्न रहता है । इस प्रकार पूजा और स्तोत्रका अन्तर स्पष्ट लक्षित हो जाता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि पूजा-पाठोंमें अष्टकके अनन्तर जो जयमाल पढ़ी जाती है, वह स्तोत्रका ही कुछ अंशोंमें रूपान्तर है।
स्तोत्र-पाठसे भी जपका माहात्म्य कोटि-गुणित अधिक बतलाया गया है । इसका कारण यह है कि स्तोत्र पाठमें तो बाहिरी इन्द्रियों और वचनोंका व्यापार बना रहता है, परन्तु जपमें उस सबको रोककर और परिमित क्षेत्रमें एक आसनसे अवस्थित होकर मौन-पूर्वक अन्तर्जल्पके साथ आराध्यके नामका उसके गुण-वाचक मन्त्रोंका उच्चारण किया जाता है। अपने द्वारा उच्चारण किया हुमा शब्द स्वयं ही सुन सके और समीपस्थ व्यक्ति भी न सुन सके, जिसके उच्चारण करते हुए
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