________________
( १२५ )
प्रतिमाका निर्माण हुआ है, उसकी द्रव्य-शुद्धिके लिए पञ्चामृताभिषेक करना योग्य है । किन्तु जिस प्रतिमाकी पंच कल्याणकोंके साथ प्रतिष्ठा की जा चुकी है और जिसे अरहन्त और सिद्ध पदको प्राप्त हुई मान लिया गया है, उस प्रतिमाका प्रतिदिन जन्म मानकर सुमेरुगिरि और पांडुकशिलाकी कल्पना करते हुए जन्माभिषेक करना कहाँ तक उचित है ? इस सब कथनका फलितार्थ यही है कि प्रतिष्ठित प्रतिमाका पञ्चामृताभिषेक करना उचित नहीं है । यही तर्क जलसे अभिषेक नहीं करनेके लिए भी दिया जा सकता है । परन्तु उसका उत्तर यह है कि जन्माभिषेककी कल्पना करके जलसे भी अभिषेक करना अनुचित है। किन्तु वायुसे उड़कर प्रतिमापर लगे हुए रजकणोंके प्रक्षालनार्थ जलसे अभिषेक करना उचित है ।
- हिंसाकी दृष्टिसे दूध, आदिसे अभिषेक करना उचित नहीं है । क्योंकि श्रावकाचारोंमें बतायी गयी विधि शुद्ध दूध, दही और घीका मिलना सर्वत्र सुलभ नहीं है और अमर्यादित दूध, दही आदि सम्मूर्छन असंख्य सजीव उत्पन्न हो जाते हैं । दूसरे अभिषेकके पश्चात् यह सब जहाँ 'फेंका जाता है, वहाँ पर भी असंख्य त्रसजीव पैदा होते और मरते हैं। तीसरे असावधानी -वश यदि मूर्त्तिके हस्त-पाद आदिकी सन्धियोंमें कहीं दूध, दही आदि लगा रह जाता है, तो वहाँपर असंख्य चींटी आदि चढ़ी, चिपटी और मरी हुई देखी गयी हैं। इस भारी त्रस - हिंसासे बचनेके लिए दही, दूध आदि अभिषेकका नहीं करना श्रेयस्कर है ।
आचमन, सकलीकरण और हवन
सोमदेवसूरिने और परवर्ती अनेक श्रावकाचार रचयिताओंने पूजन, मंत्र जाप आदिके पूर्व आचमन आदिका विधान किया है, अतः उनपर विचार किया जाता है
हाथ की चुल्लूमें पानी लेकर कुल्ला करनेको आचमन कहते हैं । हिन्दू-पूजा-पद्धतिमें आचमन करके ही पूजन करनेका विधान है । सोमदेवने इसका समर्थन करते हुए यहाँ तक लिखा है कि बिना आचमन किये घरमें भी प्रवेश नहीं करना चाहिए । ( भाग १, पृ० १७२, ४३७ ) इसी प्रकार मंत्रादि जापको प्रारम्भ करनेके पूर्व वैदिक परम्परामें प्रचलित सकलीकरणका विधान भी सोमदेवने किया है । ( भाग १, १९२, श्लोक ५७४ ) परन्तु उसकी कोई विधि नहीं बतलायी है । अमितगतिने अपने श्रावकाचारमें उसकी विधि बतलायी है, जो इस प्रकार है
मंत्र का जप प्रारम्भ करनेके पूर्व किसी पात्रमें शुद्धजलको रख लेवे । तत्पश्चात् 'ओं णमो अरहंताणं ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः' यह मंत्र बोलकर दोनों अंगूठोंको जल में डुबोकर शुद्ध करे । पुनः 'ओं णमो सिद्धाणं ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः' बोलकर दोनों तर्जनी अंगुलियोंको शुद्ध करे । पुनः 'ओं णमो आयरियाणं ह्र मध्यमाभ्यां नमः' बोलकर दोनों मध्यमा अंगुलियोंको शुद्ध करे । पुनः 'ओं णमो उवज्झायाणं ह्रौं अनामिकाभ्यां नमः' बोलकर दोनों अनामिका अंगुलियोंको शुद्ध करे । पुनः 'ओं णमो लोए सव्वसाहूणं ह्रः कनिष्ठिकाभ्यां नमः' बोलकर दोनों कनिष्ठिका अंगुलियोंको शुद्ध करे । इस प्रकार तीन बार पाँचों अंगुलियोंपर मंत्र विन्यासकर उन्हें शुद्ध करे । तत्पश्चात् 'ओं ह्रां ह्रीं ह्रौं ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः' यह मंत्र बोलकर दोनों हथेलियोंकी दोनों ओरसे शुद्ध करे । पुनः 'मो अरहंताणं ह्रां मम शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा' यह मंत्र बोलकर मस्तकपर क्षेपण करे । पुनः 'ओं णमो सिद्धाणं ह्रीं मम वदनं रक्ष रक्ष स्वाहा' बोलकर मुखपर पुष्प क्षेपण करे। पुनः 'ओं णमो आयरियाणं ह्र मम हृदयं रक्ष रक्ष स्वाहा' बोलकर हृदयपर पुष्प क्षेपण करे । पुनः 'ओं णमो उवज्झायाणं ह्रौं मम नाभि रक्ष रक्ष स्वाहा' बोलकर नाभिपर पुष्प
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org