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( १० ) उन्हींके समान उपकरण-पात्र रखता है, केशोंको क्षुरासे मुंडवाता है अथवा अथवा केश-लोंच करता है। केवल कुटुम्बी जनोंके साथ प्रेम बना रहनेसे उनके यहाँ गोचरी कर सकता है । दिगम्बर मान्यताके अनुसार उनके यहाँ ग्यारहवीं प्रतिमाके दो भेद नहीं किये गये हैं।
दिगम्बर परम्परामें किस प्रतिमाको कितने समय तक पालन करे, इसका कोई विधान दृष्टिगोचर नहीं होता है । परन्तु श्वेताम्बर परम्परामें प्रतिमाओंके पालन करनेके जघन्य और उत्कृष्ट कालका स्पष्ट विधान है, जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । तदनुसार ग्यारहवीं प्रतिमाको ११ मास तक पालन करनेके पश्चात् दशाश्रुतस्कन्धके अनुसार उसे साधु बन जाना आवश्यक है, अथवा उपासकदशासूत्रके अनुसार समाधिमरण करना आवश्यक है। इसकी पुष्टि रत्नकरण्डकसे और उसके टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्यकी प्रतिमा-व्याख्यासे पूर्व दी गई उत्थानिकासे भी होती है।'
१४. सामायिक शिक्षावत और सामायिक प्रतिमामें अन्तर ___ आचार्योंने 'सर्वविरतिलालसः खलु देशविरतिपरिणामः' कहकर सर्व पापोंसे निवृत्त होनेका लक्ष्य रखना ही देशविरतिका फल बतलाया है। यह सर्व सावध विरति सहसा संभव नहीं है, इसके अभ्यासके लिए शिक्षाव्रतोंका विधान किया गया है। स्थूल हिंसादि पाँच पापोंका त्याग अणुव्रत है और उनकी रक्षार्थ गुणवतोंका विधान किया गया है। गृहस्थ प्रतिदिन कुछ समय तक सर्व सावद्य (पाप) योगके त्यागका भी अभ्यास करे इसके लिए सामायिक शिक्षाव्रतका विधान किया गया है। अभ्यासको एकाशन या उपवासके दिनसे प्रारम्भ कर प्रतिदिन करते हुए क्रमशः प्रातः सायंकाल और त्रिकाल करने तकका विधान आचार्योंने किया है। यह दूसरी प्रतिमाका विधान है। इसमें कालका बन्धन और अतीचारोंके त्यागका नियम नही है, हाँ उनसे बचनेका प्रयास अवश्य किया है । सकलकीत्तिने एक वस्त्र पहिन कर सामायिक करनेका विधान किया है।'
किन्तु तीसरी प्रतिमाधारीको तीनों सन्ध्या में कमसे कम दो घड़ी (४८ मिनिट) तक निरतिचार सामायिक करना आवश्यक है । वह भी शास्त्रोक्त कृति कर्मके साथ और यथाजातरूप धारण करके । रत्नकरण्डकके इस 'यथाजात' पदके ऊपर वर्तमानके व्रती जनों या प्रतिमाधारी श्रावकोंने ध्यान नहीं दिया है। समन्तभद्रने जहाँ सामायिक शिक्षाव्रतीको 'चेलोपसृष्ट निरिव' (वस्त्रसे लिपटे मुनिके तुल्य) कहा है, वहाँ सामायिक प्रतिमाधारीको यथाजात (नग्न) होकरके सामायिक करनेका विधान किया है। चारित्रसारमें भी यथाजात होकर सामायिक करनेका निर्देश है और व्रतोद्योतन श्रावकाचारमें तो बहुत स्पष्ट शब्दोंमें 'यथोत्पन्नस्तथा भूत्वा कुर्यात्सामायिकं च सः' कहकर जैसा नग्न उत्पन्न होता है, वैसा ही नग्न होकर सामायिक करनेका विधान तीसरी प्रतिमाधारीके लिए किया गया है।" १. साम्प्रतं योऽसौ सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकस्तस्य कति प्रतिमा भवन्तीत्याशङ्ग्य आह । (रत्नक० श्लो.
१३६ उत्थानिका) २. एकवस्त्रं विना त्यक्त्वा सर्वबाएपरिग्रहान् ।
प्रोषधं चक्रभक्तं वा कृत्वा सामायिकं कुरु ॥ (श्रा० सं० मा० २ १० ३४३ श्लोक ३४) ३. देखो-रलकरण्डक श्लो० १३९ । ४. चारित्रसार भा० १ पृ० २२५ श्लो० १९ । ५. व्रतोचोतन
श्रावकाचार । (मा० ३, पृ० २५८, श्लो० ५०४)
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